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________________ तत्त्व मीमांसा 409 1 हजार बहत्तर करोड़, तैंसीस लाख, चौवन हजार, एक सौ नब्बे योजन एवं आभ्यन्तर परिधि एक हजार छत्तीस करोड़, बारह लाख, दो हजार, सात सौ योजन गहरे हैं । ये सभी पर्वत चौरासी हजार योजन ऊँचे इतने ही चौड़े और एक हजार योजन गहरे हैं। ये सभी पर्वत ढ़ोल की आकृति और कृष्ण वर्ण के हैं। पूर्व दिशा के अञ्जन गिरि व पूर्वादि चारों दिशाओं में नन्दा, नन्दवती, नन्दोतरा और नन्दी घोषा ये चार वापिकाएँ, दक्षिण विश्व के अञ्जनगिरि की पूर्वादिक चारों दिशाओं विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता ये चार वापिकाएँ, पश्चिम दिशा के अञ्जन गिरि की पूर्वादि चारों दिशाओं में क्रमशः अशोका, सुप्रबुद्धा, कुमुदा और पुण्डरिकिणी एवं उत्तर दिशा में अञ्जनगिरि की पूर्वादि चारों दिशाओं में क्रमशः सुप्रभंकरा, सुमना, आनन्दा एवं सुदर्शना ये चार वापिकाएँ अवस्थित हैं । इन सोलह वापिकाओं के मध्य में एक-एक सहस्र योजन गहरे, दश - दश सहस्र योजन चौड़े, लम्बे तथा ऊँचे सोलह दधिमुख एवं वापिकाओं के बाह्यकोणों में स्थित बत्तीस रतिकर पर्वत हैं । इन वापिकाओं के चारों ओर अशोक वन, सप्तपर्णवन, चम्पक वन और आम्रवन है । प्रत्येक पर्वत पर एकएक चैत्यालय रहने से अञ्जनगिरि सम्बन्धि चार, दधिमुख सम्बन्धी सोलह और रतिकर सम्बन्धी बत्तीस, इस प्रकार कुल बावन चैत्यालय हैं। ये समस्त चैत्यालय पूर्वाभिमुख, सौ योजन लम्बे, पचास योजन चौड़े पचहत्तर योजन ऊँचे हैं।" नन्दीश्वर द्वीप - समुद्र से आगे अरुणद्वीप - अरुणसागर, अरुणोद्भासद्वीपअरुणोद्भास- सागर, कुण्डलवरद्वीप - कुण्डलवर सागर, शंखवर द्वीप - शंखवर सागर, रुचकवर-द्वीप-रुचकवर सागर हैं । भुजंगवरद्वीप - भुजंगवरसागर, कुशवरद्वीप - कुशवर सागर और क्रोञ्चवरद्वीप - क्रौञ्चवरसागर है । इन सोलह द्वीप सागरों के पश्चात् मनःशील, हरिताल, सिन्दूर, श्यामक, अञ्जनहिंगलक, रुपवर, सुवर्णवर, वज्रवर, वैर्ड्सवर, नागवर, भूतवर, यक्षवर, देववर और इन्दुवर नामक द्वीप - सागरों का निर्देश मिलता है। सबसे अन्त में स्वयंभूरमण द्वीप तथा स्वयंभूरमण सागर है।" लवण समुद्र, कालोदधि और स्वयंभूरमण इन तीन समुद्रों के अतिरिक्त अन्य समुद्रों में मगर, मत्स्य आदि जलचर जीव नहीं है ।" जम्बूद्वीप के अन्तर्गत षट्कुलाचल, सात क्षेत्र और गंगा, सिन्धु आदि चौदह नदियाँ वर्णित है ।" भरत हेमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यक और ऐरावत ये सात क्षेत्र तथा हिमवन्त, महाहिमवन्त, निषद्य, नील, रुकमी और शिखरी ये छ: कुलाचल हैं। क्षेत्रों में भरत क्षेत्र की स्थिति सबसे दक्षिण में तथा ऐरावत क्षेत्र की सबसे उत्तर में मानी गई है। प्रथम चार क्षेत्रों का विस्तार क्रमशः उत्तरोत्तर दुगुना है और शेष क्षेत्र विस्तार पूर्व के क्षेत्रों के तुल्य हैं । तात्पर्य यह है, कि रम्यक क्षेत्र का विस्तार हरि के तुल्य हैरण्यवत का हैमवत के तुल्य और ऐरावत का भारत के समान है। इसी प्रकार कुलाचलों में प्रथम तीन का विस्तार अन्तिम तीन के तुल्य है । अर्थात् हिमवन्त शिखरी
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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