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________________ तत्त्व मीमांसा * 405 पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम जितनी कर देता है। इसे ही यथा प्रवृत्तिकरण कहते हैं। इस करण वाला जीव ग्रन्थिदेश को प्राप्त कर लेता है, किन्तु उसे भेद नहीं सकता। अपूर्व करण उस अध्यवसाय को कहते हैं, जिसके द्वारा भव्य जीव राग-द्वेष की दुर्भेद्य ग्रन्थि को तोड़ देते हैं। अपूर्व करण द्वारा राग-द्वेष की ग्रन्थि तोड़ने के पश्चात् जीव के परिणाम अधिक शुद्ध हो जाते हैं और वह सम्यक्त्व की प्राप्ति कर लेता है, इसे ही अनिवृत्तिकरण कहते हैं। इस प्रकार अपूर्वकरण एवं अनवृित्तिकरण द्वारा आत्मा में इतना वीर्योल्लास प्रकट हो जाता है, कि वह दर्शन मोह पर विजय प्राप्त कर लेता है। दर्शन मोह को जीतते ही प्रथम गुणस्थान मिथ्यात्व की समाप्ति हो जाती है। आत्मा को पहली बार सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है। यह अवस्था तृतीय गुणस्थान की है। सम्यग्दृष्टि को स्वरूप दर्शन हो जाता है। इस दशा को अन्तरात्म भाव कहते हैं। आत्मा के इस विकास क्रम के चतुर्थ गुणस्थान में सम्यग्दर्शन के द्वारा स्वरूप दर्शन हो जाने के पश्चात् जीव स्वरूप लाभ के लिए लालायित हो जाता है। इस अवस्था में आत्मा आध्यात्मिक शान्ति का अनुभव करता है। पाँचवे गुणस्थान में आत्मा देशविरति चारित्र को प्राप्त करता है। चूँकि दर्शन मोह के पश्चात् चारित्र मोह को क्षीण करने पर ही स्वरूप लाभ होता है। इस चारित्र मोह को अंशत: शिथिल करना ही देशविरति है। देशविरति की प्राप्ति के पश्चात् जब आत्मा चारित्र मोह को अधिकांश में शिथिल करके पहले की अपेक्षा अधिक स्वरूप स्थिरता एवं स्वरूप-लाभ प्राप्त करने की चेष्टा करता है। इस प्रयत्न में सफल होने पर वह सर्वविरति रूप छठे गुणस्थान में पहुँच जाता है। इसमें कभी-कभी थोड़ी बहुत मात्रा में प्रमाद आ जाता है। विकासोन्मुख आत्मा इस प्रमाद को भी सह नहीं पाता और वह प्रमाद का त्याग करता है। यह अप्रमत्त संयत नामक सातवाँ गुणस्थान है। सातवें गुणस्थान में पहुँचने पर एक ओर अप्रमादजन्य उत्कृष्ट सुख का अनुभव आत्मा को उस स्थिति में बने रहने के लिए प्रेरित करता है और दूसरी ओर प्रमादजन्य पूर्व वासनाएँ उसे अपनी ओर आकर्षित करती है। इस द्वन्द्वयुद्ध में आत्मा कभी प्रमाद की तन्द्रा में और कभी अप्रमाद की जागृति में अनेक बार आता जाता है। यदि इसमें आत्मा अपना चारित्र बल विशेष प्रकाशित करता है, तो वह अप्रमत्त अवस्था प्राप्त कर लेता है। अर्थात् आत्मा ऐसी तैयारी कर लेता है जिससे मोह पर विजय प्राप्त कर सके। यह आठवाँ गुणस्थान है। इसमें अपूर्व आत्मशुद्धि हो जाती है और पाँच अपूर्व शक्तियाँ आत्मा को प्राप्त हो जाती है जिनके कारण वह - 1. अपूर्व स्थिति घात, 2.
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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