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________________ तत्त्व मीमांसा * 397 प्रारब्ध कर्मों की निर्जरा करता है तथा सम्यग्दष्टि जीव के संचीयमान कर्मों का संवर हो जाता है। प्रारब्ध कर्मों की भोग के द्वारा ही निर्जरा हो जाती है तथा संचित कर्मों की निर्जरा व्रत-तपादि से होती है। वेदान्त दर्शन में भी निर्जरा या कर्मक्षय का प्रतिपादन कुछ इसी रूप में हुआ है। संपूर्ण कर्मों की निर्जरा होने पर जीव मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। 8. बंध : बंध ही संसार का कारण है। जीव जो कर्म बांधता है, उन्हीं के फल भोगने के लिए संसार में पुनः पुनः जन्म लेता है। दो पदार्थों के विशिष्ट सम्बन्ध को बन्ध कहते हैं, जिससे उनमें दूध-पानी की तरह तादात्म्य हो जाता है। जब आत्मा शुभाशुभ भाव रुप से विभाव परिणमन करता है, तो वह उस भाव के निमित्त से विविध पुद्गल कर्मों से बद्ध हो जाता है। अज्ञानी जीवों में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष मोह आदि भावों का निमित्त पाकर कर्माणुओं का आत्म प्रदेशों के साथ दूध-पानी के समान तादात्म्य हो जाना ही बंध है।' जीव का कर्माणुओं के साथ बंध होने का बहिरंग कारण मन-वचन-काय जनित योग है और अन्तरंग कारण राग-द्वेष-मोह से युक्त आत्म परिणाम है। कपाय-परिणत आत्मा कर्म-योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। इस अनादि कालीन कर्म-पुद्गलों के सम्बन्ध के कारण स्वभावतः अमूर्त आत्मा मूर्तवत् हो जाता है। अतः वह मूर्त कर्म-दलिकों को ग्रहण करता है। जैसे दीपक बत्ती के द्वारा तेल को ग्रहण कर अपनी उष्णता द्वारा उसे ज्वाला में परिणत करता है वैसे ही आत्मा कापायिक विकार द्वारा कर्मयोग्य पुद्गलों को ग्रहण कर लेता है तथा उन्हें कर्म रूप में परिणत कर लेता है। आत्म-प्रदेशों के साथ कर्म-पुद्गलों का यह सम्बन्ध ही बन्ध कहलाता है। जैसे कोई व्यक्ति शरीर पर तेल लगाकर अखाड़े की मिट्टी में लोटता है, तो उसके शरीर पर मिट्टी चिपक जाती है, उसी तरह कषाय आदि विकारों की चिकनाई के कारण कर्म-पुद्गल आत्मा के साथ चिपक जाते हैं, बंध जाते हैं। कर्म और आत्मा का यह संबंध सर्प कंचुकीवत् ऊपर-ऊपर से ही स्पृष्ट नहीं होता वरन् दूध-पानी की तरह तादात्म्य रूप बंध होता है। जैसे तप्त लोहे के पिण्ड में अणु-अणु में अग्निका प्रवेश हो जाता है, इसी प्रकार तप्त घी या तेल में छोड़ी हुई पूड़ी सब ओर से तैल को ग्रहण करती है, उसी प्रकार आत्मा स्वक्षेत्रावगाह कर्मपुद्गलों को कषायादि कारणों से सर्वात्म प्रदेशों से ग्रहण करता है। कर्म-बन्ध के पाँच हेतु कहे गए हैं- 1. मिथ्यात्व, 2. अवरिति, 3. प्रमाद, 4. कषाय और 5. योग। कहीं-कहीं कषाय ओर योग को ही कर्मबन्ध का कारण माना गया है। इस कथन में मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद को कषाय के अन्तर्गत समाविष्ट कर लिया जाता है, क्योंकि ये कषाय के स्वरूप से भिन्न नहीं है। कहीं मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, ये चार कर्मबन्ध के कारण कहे गए हैं। यहाँ प्रमाद का
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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