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________________ तत्त्व मीमांसा* 395 नहीं आने देना आदि परिषहों के जय से चारित्र में दृढ निष्ठा होती है और कर्मों का आस्रव रूककर संवर होता है। चारित्र : अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का सम्पूर्ण परिपालन करना पूर्ण चारित्र है। चारित्र के सामायिक आदि अनेक भेद हैं। सामायिक-समस्त पाप क्रियाओं का त्याग और समताभाव की आराधना। छेदोपस्थापना- व्रतों में दूषण लग जाने पर दोष का परिहार कर पुनः व्रतों में स्थिर होना। परिहार विशुद्धि- इस चारित्र के धारक व्यक्ति के शरीर में इतना हल्कापन आ जाता है, कि सर्वत्र गमन आदि प्रवृत्तियाँ करने पर भी उसके शरीर से जीवों की विराधना हिंसा नहीं होती। सूक्ष्मसम्पराय -समस्त क्रोधादि कषायों का नाश होने पर बचे हुए सूक्ष्म लोभ के नाश की तैयारी करना । यथाख्यात - समस्त कषायों के क्षय होने पर जीवन्मुक्त व्यक्ति का पूर्ण आत्मस्वरूप में विचरण करना। इस प्रकार गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह जय और चारित्र से कर्मशत्रु के आने के द्वार बन्द हो जाते हैं। कर्मों के निरोध से नोकर्म का निरोध और नोकर्म के निरोध से संसार का अभाव रूप संवर होता है। 7. निर्जरा : पूर्वबद्ध कर्मों का प्रयास पूर्वक क्षय करना निर्जरा है। योग और संवर से युक्त जो जीव बहुविध तप करता है, वह आत्म ज्ञान में निश्चल रूप से स्थित होता है, वह नियम से अनेक कर्मों की निर्जरा करता है। निर्जरा संवर पूर्वक ही होती है। गुप्ति आदि से सर्वतः संवृत व्यक्ति आगे आने वाले कर्मों के आस्रव को तो रोक ही देता है, साथ ही पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करके क्रमशः मोक्ष को प्राप्त करता है। निर्जरा दो प्रकार से होती है-एक औपक्रमिक या अविपाक निर्जरा और दूसरी अनौपक्रमिक या सविपाक निर्जरा। तप आदि साधनाओं के द्वारा कर्मों को बलात् उदय में लाकर बिना फल दिये झड़ा देना अविपाक निर्जरा है। स्वाभाविक क्रम से प्रति समय कर्मों का फल देकर झड़ते जाना सविपाक निर्जरा है। यह सविपाक निर्जरा प्रति समय हर प्राणी के होती ही रहती है। इसमें पुराने कर्मों की जगह नूतन कर्म लेते जाते हैं। गुप्ति, समिति और खासकर तप रूपी अग्नि से कर्मों को फल देने के पहले ही भस्म कर देना अविपाक या औपक्रमिक निर्जरा है। कर्मों की गति टल ही नहीं सकती। यह एकान्त नियम नहीं है। आखिर कर्म है क्या? अपने पुराने संस्कार ही वस्तुतः कर्म हैं। यदि आत्मा में पुरुषार्थ है और वह साधना करे, तो क्षण मात्र में पुरानी वासनाएँ क्षीण हो सकती हैं। "नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि।" अर्थात् सैकड़ों कल्पकाल बीत जाने पर भी बिना भोगे कर्मों का नाश नहीं हो सकता। यह मत साधारण प्राणियों के लागू होता है। लेकिन जो आत्म पुरुषार्थी साधक हैं, उनकी ध्यान रूपी अग्नि तो क्षणमात्र में समस्त कर्मों को भस्म कर सकती है
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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