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________________ 390 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन 2. कषाय- आस्रव: क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं, जिनके द्वारा जीव कर्मों का आस्रव करता है। 3. अव्रत-आस्रव : 1. प्राणातिपात, 2. मृषावाद, 3. अदत्तादान, 4. मैथुन, 5. परिग्रह ये पाँच अव्रत हैं । इनके निमित्त से होने वाला कर्मबन्धन अव्रत आस्रव है । 4. 25 क्रिया आस्रवः जिससे कर्म का आस्रव होता है, ऐसी प्रवृत्ति को क्रिया कहते हैं । क्रियाएँ दो प्रकार की कही गई है- जीव क्रिया और अजीव क्रिया । यहाँ क्रिया शब्द का अर्थ व्यापार है । अर्थात् जीव के द्वारा जो किया जाय, वह जीव क्रिया है। कर्मरुप से परिणाम अजीव - पुद्गल द्वारा जो की जाय, वह अजीव क्रिया है । जीव क्रिया के दो भेद हैं- सम्यक्त्व क्रिया और मिथ्यात्व क्रिया । तत्त्व श्रद्धान रूप सम्यक्त्व जीव-व्यापार होने से जीव क्रिया है । इसी तरह अतत्व श्रद्धान रूप मिथ्यात्व भी जीव व्यापार होने से जीव क्रिया है । अथवा सम्यग्दर्शन के होने पर जो क्रियाएँ होती हैं, वह सम्यक्त्व क्रिया है और मिथ्यादर्शन के होने पर जो क्रियाएँ होती हैं, वह मिथ्यात्व क्रिया है । अजीव क्रिया के दो भेद हैं ईर्यापथिक क्रिया और साम्परायिक क्रिया । केवल योग के निमित्त से उपशान्त मोह आदि ग्यारहवें से लेकर तेरहवें गुणस्थानवर्ती जीवों के अजीव पुद्गल राशि कर्म का साता वेदनीय के रूप में परिणत होना ईर्यापथिक क्रिया है। यहाँ जीव व्यापार रूप होने पर भी अजीव की प्रधान रूप से विवक्षा होने से अजीव क्रिया कही जाती है। ईर्यापथिक क्रिया दो प्रकार की है - बध्यमान और वेद्यमान। यह प्रथम समय में बँधती है और द्वितीय समय में इसका वेदन होता है। यह बद्ध - स्पष्ट, वेदित और निर्जीर्ण होकर तीसरे समय में अकर्म रूप हो जाती है। ईर्यापथ क्रिया एक प्रकार की ही है और साम्परायिक क्रिया 24 प्रकार की हैं। इस प्रकार 25 क्रियाएँ हैं। साम्परायिक क्रियाओं के 24 भेद इस प्रकार हैं : 1. कायिकी क्रिया : दुष्ट भाव से युक्त होकर प्रयत्न करना, अयतनापूर्वक काय की प्रवृत्ति करना, व्रत नियमादि का पालन न करके आरम्भजनक कामों में लगना कायिकी क्रिया है । 2. आधिकरणिकी क्रिया : तलवार, बन्दूक आदि शास्त्रों का संग्रह या प्रयोग करने से अथवा इनका निर्माण करने या करवाने से तथा कठोर दुर्वचन बोलकर झगड़ा पैदा करने से लगने वाली क्रिया आधिकरणिकी क्रिया है । 3. प्राद्वेषिकी : ईर्ष्या-द्वेष के निमित्त से लगने वाली क्रिया को प्राद्वेषिकी क्रिया कहते हैं । 4. पारितापनिकी : हाथ या लकड़ी आदि से किसी को ताड़ित करके या करवा के किसी को दुःख पहुँचाने से पारितापनिकी क्रिया लगती है। 5. प्राणातिपातिकी क्रियाः जीवों के दस प्रकार के प्राणों का हनन करने से
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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