SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 374 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन विलक्षण जान पाता है। जैसा कि प्रवचनसार में कहा गया है, कि 'सच्चा श्रमण वही है, जिसे अपने आत्मा में एकाग्रता प्राप्त हो । एकाग्रता उसे ही प्राप्त होती है, जिसने पदार्थों का निश्चय किया हो ।' जीव तथा अजीव दो मूल पदार्थ हैं तथा जीव और पुद्गल के संयोग परिणाम से उत्पन्न होने वाले सात अन्य पदार्थ पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष हैं। इस प्रकार ये नौ पदार्थ हैं।" इस संसार में जीव तथा अजीव दोनों एक साथ रहते हैं। मिथ्या दृष्टि जीव इस भेद को नहीं जान पाते हैं। वे आत्मा को न जानते हुए पर को आत्मा कहते हैं । कोई अध्यवसाय को, कोई कर्म को, कोई नौकर्म को ही आत्मा मानते हैं। उन्हें निश्चय से परमार्थवादी नहीं कहा जा सकता है। अज्ञानी जन आत्मा के असाधारण लक्षण को न जानने के कारण ही पर को भी आत्मा कहते हैं । अज्ञानियों को प्रतिबोधनार्थ चैतन्य स्वभाव रूप जीव को सभी पर भावों से भिन्न कहा गया है, जो कि भेदज्ञानियों का अनुभव गोचर है। मात्र व्यवहार से ही नहीं वरन् निश्चयनय से नव पदार्थों को जानने एवं उसमें श्रद्धान को ही सम्यग्दर्शन कहते हैं । मिथ्यादर्शन के निवृत होने पर, नव पदार्थों के सम्यग्दर्शन से जो अवबोध प्राप्त होता है, उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं । जो सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके स्वत्व में रहता हुआ इन्द्रिय और मन के विषयभूत पदार्थों के प्रति निर्विकार ज्ञान स्वभाव वाला समभाव होता है, वही सम्यग्चारित्र है तथा मोक्ष का कारण भूत है । अतः मोक्षमार्ग के प्रथम दो अंग सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान के विषयभूत नव पदार्थों का निश्चयनय से ज्ञान आवश्यक है । जीवः जिसमें चेतना - उपयोग शक्ति पाई जाती है, वह जीव तत्त्व है। यह अनादि, अनन्त, शाश्वत तत्त्व है । यह स्वयं सिद्ध है। न इसे किसी ने बनाया है और न किसी द्वारा कभी इसका नाश हो सकता है। यह सदा जीवित रहने से जीव कहलाता है । चेतना इसका मुख्य लक्षण बताया गया है। जैसे - ‘उपयोगो लक्षणम्' - तत्त्वार्थसूत्र 'उवओग लक्खणे जीवे' - भगवती शतक" 'जीवो उवओग लक्खणो' - उत्तराध्ययन" चेतना आत्मा का मुख्य गुण है । यह मुख्य गुण उससे कभी भी पृथक् नहीं हो सकता । जैसे अग्नि का गुण उष्णता या प्रकाशकता उससे किसी भी स्थिति में अलग नहीं हो सकते उसी प्रकार आत्मा का चेतना गुण कभी उससे विलग नहीं हो सकता । सूर्य का प्रकाश सूर्य से अलग नहीं हो सकता । उस पर चाहे जितने घने मेघों का आवरण आ जाए, उसकी प्रकाशकता न्यूनाधिक रूप में बनी रहती है, जिससे दिनरात का अन्तर दृष्टिगोचर होता है। इसी प्रकार जीव का चैतन्य स्वरूप चाहे जितना ज्ञानावरणादि कर्मों से आवृत हो जाए, उसका कोई न कोई अंश खुला ही रहता है,
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy