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________________ तत्त्व मीमांसा * 361 द्रव्य की मूल स्थिति के आधार से ही विश्वव्यवस्था के आधारभूत तत्त्वों को जानने का प्रयास करना चाहिये। जैन दर्शन के अनुसार पुद्गल शब्द जड़ पदार्थ के अर्थ में रूढ़ है। बौद्ध दर्शन में पुद्गल शब्द जीव के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैन दर्शन में ऐसा नहीं है। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक मूर्त वस्तु समान रूप से रूप, रस, गन्ध, स्पर्श युक्त हैं। वैशेषिक आदि दर्शनों में पृथ्वी को चतुर्गुण, जल को गन्ध रहित त्रिगुण, तेज को गन्ध-रस रहित द्विगुण और वायु को केवल स्पर्श गुण युक्त माना गया है। मन को भी उन्होंने स्पर्शादि चारों गुण युक्त नहीं माना है। उनका निषेध करते हुए जैन दर्शन यह बताता है, कि जितनी भी मूर्त वस्तुएँ हैं, वे सब स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण वाली हैं। मन भी पुद्गलमय होने के कारण स्पर्शादि गुण वाला है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श के क्रमशः पाँच, दो, पाँच और आठ भेद हैं। इन बीस भेदों में भी प्रत्येक के संख्यात, असंख्यात और अनन्तभेद तरतम भाव से होते हैं। जैसे मृदुत्व एक गुण है, पर प्रत्येक वस्तु की मृदुता में कुछ न कुछ तरतमता होती है। इस तारतम्य के कारण उसके संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद हो जाते हैं। इस प्रकार पुद्गल द्रव्य की अनन्त पर्यायें हैं, उन सबका विवेचन सम्भव नहीं है। यहाँ कुछ ऐसी पुद्गल पर्यायों का विवेचन करेंगे, जिनको अन्य दार्शनिक पुद्गल पर्याय नहीं मानते, किन्तु वे सभी वास्तव में पौद्गलिक पर्यायें ही हैं। 1. शब्द : जैन दर्शन ने शब्द को भाषा वर्गणा के पुद्गलों का एक विशिष्ट प्रकार के परिणाम के रूप में प्रतिपादित किया है। वैशेषिक और नैयायिक आदि दर्शनों ने शब्द को आकाश का गुण माना है। आकाश अमूर्त है, इसलिए उसका गुण भी अमूर्त होना चाहिये। परन्तु शब्द तो पौद्गलिक है, वह आकाश का गुण कैसे हो सकता है? शब्द की पौद्गलिकता आज विज्ञान के द्वारा भी सिद्ध हो चुकी है। रेडियो और ग्रामोफोन आदि विविध यन्त्रों से शब्द को पकड़कर और उसे इष्ट स्थान में भेजकर उसकी पौद्गलिकता प्रयोग सिद्ध कर दी है। यह शब्द पुद्गल के द्वारा ग्रहण किया जाता है, पुद्गल से धारण किया जाता है, पुद्गलों से रूकता है, पुद्गलों को रोकता है, पुद्गल कर्ण आदि के पर्दो को फाड़ देता है और पौद्गलिक वातावरण में अनुकम्पन पैदा करता है, अतः पौद्गलिक है। स्कन्धों के परस्पर संयोग, संघर्षण और विभाग से शब्द उत्पन्न होते हैं। जिह्वा और तालु आदि के संयोग से नाना प्रकार के भाषात्मक प्रायोगिक शब्द उत्पन्न होते हैं। इसके उत्पादक उपादान कारण तथा स्थूल निमित्त कारण दोनों ही पौद्गलिक हैं। शब्द दो प्रकार के होते हैं - 1. प्रयोगज : जो शब्द आत्मा के प्रयत्न से उत्पन्न होता है, वह प्रयोगज है। 2. वैश्रसिक : जो प्रयत्न के बिना ही प्राकृतिक रूप से स्कंधों के घर्षण से उत्पन्न होता है, वह वैश्रासिक हैं, जैसे मेघ की गर्जना आदि।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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