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________________ तत्त्व मीमांसा * 345 तरह सद्भाव में ही रहती है। 8. यह भी नियत है, कि- अगले क्षण में जिस प्रकार की सामग्री उपस्थित होगी, द्रव्य का परिणमन उससे प्रभावित होगा। सामग्री के अन्तर्गत जो भी द्रव्य हैं, उनके परिणमन भी इस द्रव्य से प्रभावित होंगे। जैसे कि ऑक्सिजन के परमाणु को यदि हाइड्रोजन का निमित्त नहीं मिलता तो वह ऑक्सिजन के रुप में ही परिणमन करता है, किंतु यदि हाइड्रोजन का निमित्त मिल जाता है, तो दोनों का ही जल रुप से परिवर्तन हो जाता है। तात्पर्य यह है, कि पुद्गल और संसारी जीवों के परिणमन अपनी तत्कालीन सामग्री के अनुसार परस्पर प्रभावित होते रहते हैं। किन्तु केवल यही अनिश्चित है, कि अगले क्षण में किसका क्या परिणाम होगा? कौनसी पर्याय का विकास होगा? या किस प्रकार की सामग्री उपस्थित होगी? यह परिस्थिति और योगायोग पर निर्भर करता है। यह निश्चित है. कि कोई भी द्रव्य अपनी ही विविध पर्यायों में परिणमन करता है। किसी अन्य द्रव्य की पर्याय रुप परिणमन नहीं करता। जैसे जीव जीव की ही विविध पर्यायों जैसे- मनुष्य, गाय, बतख आदि रूप से परिणमन करता है, वस्त्र या घट रुप से कभी भी जीव का परिणमन नहीं होगा। इसी प्रकार पुद्गल पुद्गल की ही विविध पर्यायों जैसे- वस्त्र, तन्तु आदि रुप परिणमन करेगा, मनुष्य, पशु आदि जीव पर्यायों के रुप में नहीं। इस प्रकार जैन दर्शन में सामान्य रुप से सत्ता के परिणामी नित्य स्वरुप को प्रतिपादित किया गया है। अब उसके विशोषात्मक स्वरुप का अध्ययन भी आवश्यक षद्रव्य- निरुपण : जैन दर्शन ने लोक में समस्त पदार्थों को द्रव्यानुसार छ: वर्गों में विभाजित किया है- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इन छ: द्रव्यों में से प्रत्येक द्रव्य शेष से पूर्णतः भिन्न हैं और उसकी स्वतन्त्र सत्ता है। द्रव्य की सत्ता का परिचायक उसका चतुष्टय है और यह चतुष्टय ही उसकी सीमा निर्धारित करता है। स्व-चतुष्टय या स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से परे यदि किसी द्रव्य की सत्ता है, तो वह पर द्रव्य है, जो स्वद्रव्य से नितान्त भिन्न है। यद्यपि ये द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश करते हैं, एक दूसरे को अवकाश देते हैं तथा परस्पर दूध-पानी की तरह मिल जाते हैं, फिर भी वे कभी भी अपने स्वभाव को नहीं छोडते। पंचास्तिकाय-निरुपण : जैन दर्शन ने समस्त द्रव्यों को बहुप्रदेशी अस्तित्व वाले तथा एक प्रदेशी अस्तित्व वाले द्रव्यों में वर्गीकृत किया है। बहुप्रदेशी द्रव्यों को प्रदेश पचय होने से कायवत् काय कहा जाता है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म तथा आकाश द्रव्य कायवत् अस्तित्व के कारण पंचास्तिकाय कहलाते हैं। कालद्रव्य एक
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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