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________________ तत्त्व मीमांसा * 343 जानने के लिए उस द्रव्य की सत्ता को उसके स्वचतुष्टय के सद्भाव के रुप में जाना जा सकता है। इस प्रकार सप्रतिपक्ष होने के कारण सत्ता द्विविध कही गई है- 1. महासत्ता (सादृश्यास्तित्व), 2. अवान्तर सत्ता (स्वरुपास्तित्व) द्रव्यार्थिक दृष्टि से सत्ता को महासत्ता कहा गया है, जिसकी व्याख्या समस्त द्रव्यों के सामान्य स्वरुप की दृष्टि से की गई है। पर्यायार्थिक दृष्टि से सत्ता को अवान्तर सत्ता कहा गया है, जिसके अन्तर्गत विशिष्ट द्रव्य की दृष्टि से सत्ता की व्याख्या की जाती है। सत्ता की सप्रतिपक्षता का कथन व्यवहारनय से ही किया गया है। निश्चयनय से तो सत्ता एक ही है। यहाँ सत्ता के विवेचन में अनेकान्तवाद शैली का संकेत मिलता है। सापेक्ष दृष्टि से ही सत्ता को सप्रतिपक्ष कहा गया है। सत्ता के सप्रतिपक्ष स्वरुप को द्वन्द्वात्मक कहा जा सकता है, क्योंकि दोनों ही सत्ताएँ एक दूसरे के विरोध या निषेध को अभिव्यक्त करती हैं, इसे इस प्रकार से समझाया गया है1. महासत्ता अवान्तर सत्तारुप से असत्ता है और अवान्तर सत्ता महासत्ता रुप से असत्ता है। 2. महासत्ता उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य ऐसे तीन लक्षण वाली है और अवान्तर सत्ता तीनों ही संदर्भ में एक लक्षणा होने से अत्रिलक्षणा है। 3. महासत्ता समस्त पदार्थ समूह में एक सत् रुप में ही विद्यमान है, जबकि अवान्तर सत्ता प्रत्येक वस्तु की अलग-अलग होने से अनेक है। 4. सत स्वरुप महासत्ता समस्त पदार्थों में विद्यमान हैं, जबकि प्रत्येक वस्तु का विशिष्ट स्वरुप भिन्न होता है, अतः उस वस्तु की अवान्तर सत्ता उसी में सीमित होती है, अन्य वस्तुओं में नहीं पायी जाती है। 5. महासत्ता समस्त विश्व में सत्ता रुप से विद्यमान होने से सविश्वरुपा है, जबकि अवान्तर सत्ता विशिष्ट वस्तु तक ही सीमित होती है। 6. महासत्ता सभी पर्यायों में स्थित होने से अनन्त पर्यायमय है, जबकि प्रत्येक पर्याय की अवान्तर सत्ता उस एक पर्यायमय ही है। इस प्रकार यह सामान्य विशेषात्मक सत्ता सप्रतिपक्ष है, जो सत्ता की कूटस्थ नित्यता का खण्डन करके परिणामी नित्यता का प्रतिपादन करती है। इस प्रकार समग्र रुप से इस जगत व्यवस्था में कुछ बातें नियत हैं, जिनका उल्लंघन कोई नहीं कर सकता है। यथा1. यह नियत है, कि जगत में जितने सत् हैं, उनमें कोई नया सत् उत्पन्न नहीं हो सकता और न मौजूदा सत् का समूल विनाश ही हो सकता है। वे सत् हैं- अनन्त चेतन, अनन्त पुद्गलाणु, एक आकाश, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य और असंख्य कालद्रव्य। इनकी संख्या में न तो एक की वृद्धि
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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