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________________ तत्त्व मीमांसा* 339 नहीं है, उनमें बाह्य संबंध नहीं है। ऐसा कभी नहीं है, कि अस्तित्व बिछी हुई चादर की तरह एक अखण्ड चीज हो और उस पर बैठे हुए मनुष्यों की तरह सब द्रव्य हों जो उस सत्ता सामान्य को स्वीकार करते हुए भी उससे पृथक् है। द्रव्य तथा सत्ता तो सूर्य एवं उसके प्रकाश के समान है। कोई भी द्रव्य सत्ता विहिन न तो कभी हुआ है, न ही है और न ही होगा, क्योंकि सत्ता द्रव्य का स्वभाव है। जो सत्ताविहीन है, वह द्रव्य ही नहीं है, जैसे वंध्यापुत्र । इस प्रकार सत्ता के रूप में द्रव्य को स्वीकार किया गया है। यद्यपि समस्त द्रव्य पृथक्-पृथक् अस्तित्त्वमान है, किन्तु अस्तित्व सामान्य की दृष्टि से अर्थात् सभी द्रव्यों में एक ही प्रकार की सत्ता होने से सब द्रव्य एक तथा उनकी सत्ता भी एक कही गई है।" द्रव्य प्रतिक्षण परिणमन करता है। वह एक पर्याय रूप से नष्ट होकर अन्य पर्याय रूप में उत्पन्न होता है, फिर भी अपने मूल स्वरूप में ध्रुव ही रहता है। यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है, कि किसी भाव अर्थात् सत् का आत्यांतिक विनाश नहीं होता और न ही किसी अभाव अर्थात् असत् का उत्पाद होता है। सभी द्रव्य अपने गुण और पर्याय रूप से उत्पाद, व्यय करते रहते हैं। लोक में जितने सत (द्रव्य) हैं, वे त्रैकालिक सत हैं। उनकी संख्या में परिवर्तन नहीं होता। उनकी गुण-पर्यायों में परिवर्तन अवश्यम्भावी है, उसका कोई अपवाद नहीं हो सकता। ___ द्रव्य के इस उत्पाद-व्यय ध्रौव्यात्मक स्वरुप को एक उदाहरण के द्वारा बहुत अच्छी तरह समझा जा सकता है। जैसे एक स्वर्णकार एक स्वर्णकंगन को गलाकर उससे स्वर्णहार बनाता है। तब हार की उत्पत्ति होती है, कंगन का नाश होता है तथा दोनों ही अवस्थाओं में मूल तत्व स्वर्ण स्थिर रुप से विद्यमान रहता है। ___तात्पर्य यह है, कि उत्पत्ति और विनाश की अविरत गतिशील धारा में भी पदार्थ का मूल स्थयी रहता है। इसी ज्ञान को भगवान महावीर ने 'मातृका त्रिपदी" कहा है। इन तीन अंशों का समन्वय होना ही सत् का लक्षण है। इस असीम और अनन्त विश्व का कण-कण तीनों अंशों से समन्वित है, जिसमें यह तीनों अंश नहीं, ऐसी वस्तु की सत्ता संभव नहीं है। ___हम जिसे वस्तु कहते हैं, उसमें तीन अंश विद्यमान होते हैं- द्रव्य, गुण और पर्याय।" वस्तु का नित्य अंश द्रव्य है, सहभावी अंश गुण है तथा क्रमभावी अंश पर्याय है। एक उदाहरण द्वारा इन तीनों का स्वरुप समझें- जीव द्रव्य है, उसका सदा विद्यमान रहने वाला ज्ञान, चैतन्य गुण है और मनुष्य, पशु, कीट, पतंग आदि दशाएँ पर्याय हैं । यह तीनों अंश सदैव परस्पर अनुस्यूत रहते हैं और वस्तु कहलाते हैं । संक्षेप में द्रव्य वह है, जो गुण और पर्याय से युक्त हो, अथवा जो उत्पाद और विनाश से युक्त होकर भी अपने मूल स्वभाव का त्याग न करने के कारण ध्रुव हो। वस्तुओं में पायी जाने वाली भिन्नता दो प्रकार की होती है-'अन्यत्वरुप' तथा
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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