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________________ तत्त्व मीमांसा * 337 उपर्युक्त मतों में सत्ता के स्वरूप का विवेचन एकान्तिक रूप से ही किया गया है। जैन दर्शन में सत्ता का स्वरूप समन्वयात्मक है, जो उनके अनेकान्तवाद पर आधारित है। जैन तत्त्व विचार की प्राचीनता : वैदिक और बौद्ध दार्शनिक पूर्व भूमिका के पश्चात् जैन दर्शन के तत्त्व विचारों का विवेचन करेंगे। चूँकि जैनदर्शन किसी एक दार्शनिक द्वारा प्रणीत नहीं है। वरन् जैन अनुश्रुति के अनुसार 24 तीर्थंकर जैन दर्शन के प्रणेता है। प्रत्येक तीर्थंकर अपने समय में परम्परा से चले आ रहे दार्शनिक सिद्धान्तों को ही अपने कालानुसार नवीन रूप से प्रतिपादित करते रहे हैं। यद्यपि सभी के द्वारा प्रणीत दार्शनिक परम्परा एक सी ही होती है। प्रत्येक तीर्थंकर अपने से पूर्व हुए तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित परम्परा को ही पुनरुत्थित करते हैं। फिर भी वह सर्वथा मौलिक ही होता है, क्योंकि प्रत्येक तीर्थंकर अपने आत्मज्ञान के द्वारा समस्त विषयों को जानते हैं, केवलज्ञान के रूप में और उस स्वज्ञान को प्रतिपादित करते हैं। पूर्व के तीर्थंकरों के द्वारा प्रतिपादित ज्ञान को श्रुति द्वारा जानकर उसका प्रचार नहीं करते। चूँकि केवल ज्ञान अथवा आत्मज्ञान संपूर्ण ज्ञान है, उसका स्वरूप एक ही है। अतः दीर्घकालीन अन्तराल के बावजूद सभी तीर्थंकरों ने एक ही दार्शनिक परम्परा को प्रतिपादित किया है। इस प्रकार संपूर्ण जैन दर्शन की भाँति ही जैन तत्त्व-विचार भी भगवान महावीर के पूर्व से ही विद्यमान थे। जैन अनुश्रुति के अनुसार भगवान महावीर ने किसी नये तत्त्व दर्शन का प्रतिपादन नहीं किया था वरन् उनसे 250 वर्ष पहले होने वाले तीर्थंकर पार्श्वनाथ के तत्त्व विचार का ही प्रचार किया है। भगवान पार्श्वनाथ द्वारा प्ररुपित आचार परम्परा में तो भगवान महावीर ने कुछ परिवर्तन किए, जिसका ज्ञान हमें आगमों से ही होता है। किंतु पार्श्वनाथ के तत्त्वज्ञान से उनका कोई मतभेद जैनागमों में भी नहीं बताया गया है। इससे यह सिद्ध हो जाता है, कि जैन तत्त्व विचार के मूल तत्त्व पार्श्वनाथ जितने तो पुराने अवश्य है। जैन अनुश्रुति तो इसे इससे भी आगे ले जाती है। उसके अनुसार अपने से पहले हुए श्री कृष्ण के समकालीन तीर्थंकर अरिष्टनेमि ने प्रागैतिहासिक काल में होने वाले नमिनाथ की परम्परा को स्वीकार किया। इस प्रकार वह अनश्रुति हमें ऋषभदेव जो कि भरत चक्रवर्ती के पिता थे, तक पहुँचा देती है। वर्तमान वेद से लेकर उपनिषद् पर्यंत संपूर्ण साहित्य का मूल स्रोत ऋषभदेव प्रणीत जैन तत्त्व-विचार में ही है। इस जैन अनुश्रुति के प्रामाण्य को ऐतिहासिक दृष्टि से सिद्ध करना संभव नहीं है, क्योंकि मध्यकालीन तीर्थंकरों का संपूर्ण विवेचन हमें प्राप्त नहीं होता है। फिर भी ऋषभदेव की प्रामाणिकता तो वेदों एवं पुरातात्विक आधारों पर सिद्ध हो ही चुकी है। अतः अनुश्रुति प्रतिपादित जैन तत्त्व विचार की प्राचीनता में संदेह का कोई स्थान नहीं है। जैन तत्त्व विचार की स्वतंत्रता इसी से सिद्ध है, कि उपनिषदों में अन्य दर्शन-शास्त्र
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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