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________________ ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा) 313 मीमांसकों के अतिरिक्त सभी दार्शनिकों ने आगम को पौरुषेय ही माना है और सभी ने अपने अपने इष्ट पुरुष को ही आप्त मानकर अन्य को अनाप्त सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। अन्ततः सभी को दूसरों के सामने आगम का प्रमाण्य अनुमान और युक्ति से आगमोक्त बातों की संगति दिखाकर स्थापित करना ही पड़ता है। यही कारण है, कि निर्युक्तिकार ने आगम को स्वयं सिद्ध मानकर भी हेतु और उदाहरण की आवश्यकता आगमोक्त बातों की सिद्धि के लिए स्वीकार की है. - " जिणवयणं सिद्धं चेव भण्णए कत्थई उदाहरणं । आसज्ज उसोयारं हेऊ वि कहिंचि भणेज्जा ॥' 91155 आगमरूप से किस पुरुष का शास्त्र प्रमाण माना जाए, इस विषय में जैनों ने जो मत आगमिक काल में स्थिर किया है, उसे भी बता देना आवश्यक है । सर्वदा यह तो | संभव नहीं, कि तीर्थंकर ( प्रवर्तक) और उनके गणधर मौजूद रहे और शंका स्थानों का समाधान करते रहे। इसी आवश्यकता से ही उनके अतिरिक्त पुरुषों को भी प्रमाण मानने की परम्परा ने जन्म लिया। गणधर प्रणीत आचारांग आदि अंगशास्त्रों के अतिरिक्त स्थविर प्रणीत अन्य शास्त्र भी आगम के अन्तर्गत स्वीकार्य होकर अंग बाह्य रूप से प्रमाण माने जाने लगे : "सुतं गणधर कथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च । सुदकेवलिणा कथिदं अभिण्णदास पुत्वकथिदं च ॥' 99756 इस गाथा के अनुसार गणधर कथित के अतिरिक्त प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और दशपूर्वी के द्वारा कथित भी सूत्र आगम में अन्तर्भूत है। प्रत्येकबुद्ध सर्वज्ञ होने से उनका वचन प्रमाण है। जैन परम्परा के अनुसार अंग बाह्य ग्रन्थों की रचना स्थविर करते हैं । ऐसे स्थविर दो प्रकार के होते हैं । सम्पूर्ण श्रुतज्ञानी और कम से कम दशपूर्वी । संपूर्ण श्रुतज्ञानी को चतुर्दशपूर्वी श्रुतकेवली कहते हैं । श्रुतकेवली गणधर प्रणीत संपूर्ण द्वादशांगी रूप जिनागम के अर्थ और सूत्र के विषय में निपुण होते हैं । अतएव उनकी ऐसी योग्यता मान्य है, कि वे जो कुछ कहेंगे या लिखेंगे उसका द्वादशांगी रूप जिनागम के साथ कुछ भी विरोध हो नहीं सकता। जिनोक्त विषयों का संक्षेप या विस्तार करके तत्कालीन समाज के अनुकूल ग्रन्थ रचना करना ही उनका प्रयोजन होता है, अतएव संघ ने ऐसे ग्रन्थों को सहज ही में जिनागमान्तर्गत कर लिया है, इनका प्रामाण्य स्वतन्त्र भाव से नहीं किन्तु गणधर प्रणीत आगम के साथ अविसंवाद के कारण है। कालक्रम से जैन संघ में वीर नि० 170 वर्ष के बाद श्रुतकेवली का भी अभाव हो गया और केवल दशपूर्वधर ही रह गए, तब उनकी विशेष योग्यता को ध्यान में रख कर जैन संघ ने दशपूर्वधर - ग्रथित मूल्यों को भी आगम में शामिल कर लिया। इन ग्रंथों का भी प्रामाण्य स्वतन्त्र भाव से नहीं, किन्तु गणधरप्रणीत आगम के साथ अविरोधमूलक है।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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