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________________ 296 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन बुद्धि का ज्ञान अनुमान के बिना नहीं हो सकता, क्योंकि बुद्धि का इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष असम्भव है। वह तो व्यापार, वचन प्रयोग आदि कार्यों को देखकर ही अनुमित होती है। जिन कार्य कारण भावों या अविनाभावों का हम निर्णय न कर सकें अथवा जिनमें व्यभिचार देखा जाए उनसे होने वाला अनुमान भले ही भ्रान्त हो जाए, लेकिन अव्यभिचारी कार्यकारण भाव आदि के आधार से होने वाला अनुमान अपनी सीमा में विसंवादी नहीं हो सकता। परलोक आदि के निषेध के लिए भी चार्वाक को अनुमान की ही शरण लेनी पड़ती है। वामी से निकलने वाली भाप और अग्नि से उत्पन्न होने वाले धुएँ में विवेक नहीं कर सकता तो प्रमाता का अपराध है, अनुमान का नहीं। यदि सीमित क्षेत्र में पदार्थों के सुनिश्चित कार्य-कारण-भाव न बिठाये जा सकें, तो जगत् का समस्त व्यवहार ही नष्ट हो जाएगा। यह ठीक है, कि जो अनुमान आदि विसंवादी निकल जाएँ उन्हें अनुमानाभास कहा जा सकता है, पर इससे निर्दिष्ट अविनाभाव के आधार से होने वाला अनुमान कभी मिथ्या नहीं हो सकता। यह तो प्रमाता की कुशलता पर निर्भर करता है, कि वह पदार्थों के कितने और कैसे सूक्ष्म या स्थूल कार्यकारण भाव को जानता है। आप्त के वाक्य की प्रमाणता हमें व्यवहार के लिए माननी ही पड़ती है, अन्यथा समस्त सांसारिक व्यवहार छिन्न-भिन्न हो जाएँगे। मनुष्य के ज्ञान की कोई सीमा नहीं है, अतः अपनी मर्यादा में परोक्ष ज्ञान भी अविसंवादी होने से प्रमाण ही हैं। यह खुला रास्ता है, कि जो ज्ञान जिस अंश में विसंवादी हो उन्हें उस अंश में प्रमाण माना जाए। अतः चार्वाक का परोक्ष ज्ञान को प्रमाण न मानना सर्वथा अनुचित है। परोक्ष प्रमाण के भेद : जैन दर्शन में परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद बताए गए हैं - "स्मरण प्रत्यभिज्ञानतर्कानमानागम भेदतस्तत् पञ्चप्रकारम॥12 1. स्मरण, 2. प्रत्यभिज्ञान, 3. तर्क, 4. अनुमान एवं 5. आगम। 1. स्मरण : "तत्र संस्कार प्रबोधसम्भूतं, अनुभूतार्थविषयं, तदित्याकारं वेदनं स्मरणम्।" अर्थात् संस्कार (धारणा) के जागृत होने से उत्पन्न होने वाला, पहले जाने हुए पदार्थ को जानने वाला, 'वह' इस आकार वाला ज्ञान स्मरण है। जैसे वह तीर्थंकर का बिम्ब है। यह ज्ञान अतीतकालीन पदार्थ को विषय करता है। इसमें 'तत्' शब्द का उल्लेख अवश्य होता है। यद्यपि स्मरण का विषयभूत पदार्थ सामने नहीं है, फिर भी वह हमारे पूर्व अनुभव का विषय तो था ही और उस अनुभव का दृढ़ संस्कार हमें सादृश्य आदि अनेक निमित्तों से उस पदार्थ को मन में झलका देता है। इस स्मरण की बदौलत ही जगत के समस्त लेन-देन आदि व्यवहार चल रहे हैं। व्याप्ति स्मरण के बिना अनुमान और संकेत स्मरण के बिना किसी प्रकार के शब्द का प्रयोग ही नहीं हो
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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