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________________ ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा) * 293 इसके अपूर्णताजन्य भेद-प्रभेद नहीं है। कोई भी वस्तु या भाव ऐसा नहीं है, जो उसके द्वारा प्रत्यक्ष न जाना जा सके। इसीलिए केवलज्ञान की प्रवृत्ति सब द्रव्यों और सब पर्यायों में मानी गई है। __एक आत्मा में एक साथ पाये जाने वाले ज्ञान : “एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुर्यः।122 अर्थात् एक आत्मा में एक समय एक साथ एक ज्ञान से यावत् चार ज्ञान अनियत रूप से होते हैं। किसी आत्मा में एक साथ एक, किसी में दो, किसी में तीन और किसी में चार ज्ञान तक संभव है, पर पाँचों ज्ञान एक साथ किसी में नहीं होते। जब एक ज्ञान होता है, तब केवलज्ञान ही होता है, क्योंकि परिपूर्ण होने से कोई अन्य अपूर्ण ज्ञान सम्भव ही नहीं है। जब दो ज्ञान होते हैं, तब मति और श्रुत ज्ञान होते हैं। क्योंकि पाँच ज्ञानों में से ये ही दो ज्ञान सहचारी हैं। शेष तीनों ज्ञान एक दूसरे को छोड़कर भी रह सकते हैं। जब तीन ज्ञान होते हैं तब मति, श्रुत तथा अवधि या मनःपर्याय ज्ञान होते हैं। तीन ज्ञान अपूर्ण अवस्था में ही हो सकते हैं। चाहे अवधिज्ञान हो अथवा मनः पर्याय ज्ञान मति और श्रुत दोनों तो अवश्य ही होते हैं। जब चार ज्ञान होते हैं तब मति श्रुत, अवधि और मनःपर्याय ज्ञान होते हैं, क्योंकि ये ही चारों ज्ञान अपूर्ण अवस्था भावी होने से एक साथ हो सकते हैं। केवलज्ञान का अन्य किसी ज्ञान के साथ साहचर्य नहीं है, क्योंकि वह पूर्ण अवस्था भावी है और शेष सभी ज्ञान अपूर्ण अवस्थाभावी हैं। पूर्णता तथा अपूर्णता दोनों अवस्थाएँ आपस में विरोधी होने से एक साथ आत्मा में नहीं होती। दो, तीन या चार ज्ञानों को एक साथ शक्ति की अपेक्षा से सम्भव कहा गया है, प्रवृत्ति की अपेक्षा से नहीं। मति और श्रुत दो ज्ञान वाला या अवधि सहित तीन ज्ञान वाला कोई आत्मा जिस समय मतिज्ञान के द्वारा किसी विषय को जानने में प्रवृत्त हो, उस समय वह अपने में श्रुत की शक्ति या अवधिज्ञान की शक्ति होने पर भी उसका उपयोग करके उसके विषयों को नहीं जान सकता। इसी प्रकार वह श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति के समय मति या अवधि की शक्ति को भी काम में नहीं ले सकता है। यही बात मन:पर्याय की शक्ति के विषय में है। सारांश यह है, कि आत्मा में एक साथ अधिक से अधिक चार ज्ञान शक्तियाँ हो, तब भी एक समय में कोई एक ही शक्ति जानने का कार्य करती है। अन्य शक्तियाँ निष्क्रिय रहती हैं। केवलज्ञान के समय मति आदि चारों ज्ञान नहीं होते। यह सिद्धान्त सामान्य है। यदि होते भी हैं, तो जिस प्रकार सूर्य प्रकाश में ग्रह-नक्षत्र का प्रकाश छुप जाता है, उसी प्रकार केवलज्ञान के प्रकाश में अन्य प्रकार के ज्ञान तिरोहित हो जाते है।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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