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________________ ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा ) *291 1. मनः पर्याय ज्ञान अवधिज्ञान की अपेक्षा अपने विषय को अधिक स्पष्ट रूप से जानता है, इसलिए उससे विशुद्धतर है । 2. क्षेत्र से अवधिज्ञान का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोक तक है और मनः पर्ययज्ञान का क्षेत्र मानुषोत्तर पर्वत पर्यंत ही है । 3. अवधिज्ञान के स्वामी चारों गति वाले जीव हो सकते हैं, लेकिन मन:पर्यय ज्ञान के स्वामी केवल संयत मनुष्य ही हो सकते हैं । 4. अवधिज्ञान का विषय कतिपय पर्याय सहित रुपीद्रव्य है, किन्तु मनः पर्ययज्ञान का विषय तो केवल उसका अनन्तवाँ भाग है, मात्र मनोद्रव्य है । मन:पर्ययज्ञान में अवधिज्ञान की अपेक्षा विषय कम होने पर भी वह अधिक विशुद्ध होता है। विशुद्धि का आधार विषय की न्यूनाधिकता नहीं है, विषयगत न्यूनाधिक सूक्ष्मताओं को जानना है 1 केवलज्ञान : समस्त ज्ञानावरण के समूल नाश होने पर प्रकट होने वाला निरावरण ज्ञान केवलज्ञान है। आचार्य कुन्दकुन्द ने केवलज्ञान का स्वरूप बताते हुए उसे सुख रूप कहा है “जादं सयं समंत णाणमणंतत्थवित्थडं विमलं । रहिदं तु ओग्गहादिहिं सुहं ति एगंतियं भणि दं ॥ ,,115 अर्थात् अपने आप ही उत्पन्न समंत ( सर्व प्रदेशों से जानता हुआ), अनन्त पदार्थों में विस्तृत, विमल और अवग्रहादि से रहित ऐसा ज्ञान एकान्तिक (अकेला) सुख है, ऐसा सर्वज्ञदेव ने कहा है । केवलज्ञान आत्ममात्र सापेक्ष होता है अर्थात् आत्मा के द्वारा ही आत्मा को ही स्व-पर ज्ञान रूप से जानता है । यह केवल अर्थात् अकेला या संपूर्ण होता है । इस ज्ञान के प्रकट होते ही समस्त क्षायोपशमिक ज्ञान विलीन हो जाता है। जिस प्रकार सूर्य के उदित होते ही उसके प्रकाश में संपूर्ण तारामण्डल विलीन हो जाता है। यह समस्त द्रव्यों की त्रिकालवर्ती सभी पर्यायों को जानता है तथा अतिन्द्रिय होता है । यह संपूर्ण रूप से निर्मिल होता है। इसे सिद्ध करने की मूल युक्ति यह है, कि आत्मा जब ज्ञान स्वभाव है और आवरण के कारण इसका यह ज्ञान स्वभाव खंड-खंड करके प्रकट होता है, तब संपूर्ण आवरण के हट जाने पर ज्ञान को अपने पूर्ण रूप में प्रकाशमान होना ही चाहिये। जैसे अग्नि का स्वभाव है, जलाने का यदि कोई प्रतिबन्ध न हो तो अग्नि ईंधन को जलायेगी ही। उसी प्रकार ज्ञान स्वभाव आत्मा पर से प्रतिबन्धकों के हट जाने पर जगत के समस्त पदार्थों को जानेगा ही। जो पदार्थ किसी ज्ञान के ज्ञेय हैं, किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य होते हैं । जैसे पर्वतीय अग्नि आदि अनेक अनुमान उस निरावरण ज्ञान की सिद्धि के लिए दिए जाते हैं । केवलज्ञान को आगमों में इस प्रकार से परिभाषित किया गया है, कि “जेएगे
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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