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________________ ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा ) *287 तरह केवल शब्द, गंध, रस और स्पर्श कुछ है, ऐसा जो अव्यक्त ज्ञान होता है, वह व्यञ्जनावग्रह है । चक्षु और मन रूप आदि से सम्बन्ध किये बिना ही ज्ञान करते हैं, अतः इनसे व्यञ्जनावग्रह नहीं होता है । अतः व्यञ्जनावग्रह के चार ही प्रकार है । 100 2. अर्थावग्रह : अर्थावग्रह छः प्रकार का कहा गया है। 1. श्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह, 2. चक्षुन्द्रिय अर्थावग्रह, 3. घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रह, 4. रसनेन्द्रिय अर्थावग्रह, 5. स्पर्शेन्द्रिय अर्थावग्रह 6. नोइन्द्रिय ( मन ) अर्थावग्रह । पाँच इन्द्रिय और मन से पदार्थों के सामान्य ज्ञान करने को अर्थावग्रह कहते हैं, जो आश्रय के भेद से छः प्रकार का है। जैसे मार्ग में जल्दी से चलते हुए कुछ दिखाई पड़ता है, तो दर्शक यही कहता है, कि मैंने कुछ देखा था, इसे अर्थावग्रह कहते हैं I अर्थावग्रह दो प्रकार का माना गया है - व्यावहारिक और नैश्चयिक । बहु, अल्प आदि बारह भेद प्रायः व्यावहारिक अर्थावग्रह के ही हैं, नैश्चयिक के नहीं । नैश्चयिक अर्थावग्रह में जाति-गुण-क्रिया से रहित सामान्य मात्र प्रतिभासित होता है, इसलिए उसमें अल्प-बहु आदि विशेषों का ग्रहण संभव नहीं है। जो अर्थावग्रह सर्वप्रथम सामान्य मात्र को ग्रहण करता है, वह नैश्चयिक है और जिस-जिस विशेषग्राही अवाय ज्ञान के पश्चात् अन्यान्य विशेषों की जिज्ञासा और अवाय होते रहते हैं, वे सामान्य विशेषग्राही अवाय ज्ञान व्यावहारिक अर्थावग्रह है । जिसके बाद अन्य विशेषों की जिज्ञासा न हो, वह अवाय ज्ञान नैश्चयिक अर्थावग्रह है । सभी इन्द्रियों और मन का स्वभाव समान नहीं है, इसलिए उनके द्वारा होने वाली ज्ञान धारा के आविर्भाव का क्रम भी समान नहीं होता । यह क्रम दो प्रकार का है मन्दक्रम और पटुक्रम | मन्दक्रम में इन्द्रिय के साथ ग्राह्य विषय का संयोग होने पर ही ज्ञान धारा का आविर्भाव होता है, जिसका प्रथम अंश अव्यक्ततम, अव्यक्ततर रुप व्यञ्जनावग्रह नामक ज्ञान, दूसरा अंश अर्थावग्रह रूप ज्ञान और चरम अंश स्मृति रूप धारणा ज्ञान है । इसके विपरीत पटुक्रम में उपकरणेन्द्रिय और विषय के संग की अपेक्षा नहीं है । दूर दूरतर होने पर भी योग्य सन्निधान मात्र से इन्द्रिय उस विषय को ग्रहण कर लेती है और ग्रहण होते ही उस विषय का उस इन्द्रिय द्वारा प्रारम्भ में अर्थावग्रह रूप सामान्य ज्ञान उत्पन्न होता है। इसके बाद क्रमशः ईहा, अवाय आदि ज्ञान व्यापार पूर्वोक्त मन्दक्रम की तरह ही प्रवृत्त होता है । सारांश यह है, कि पटुक्रम में इन्द्रिय के साथ ग्राह्य विषय का संयोग हुए बिना ही ज्ञान धारा का आविर्भाव होता है, जिसका प्रथम अंश अर्थावग्रह और चरम अंश स्मृति रूप धारण ज्ञान है। 2. पारमार्थिक प्रत्यक्ष : 99101 “पारमार्थिकं पुनरुत्पत्तावात्ममात्रापेक्षम्॥' अर्थात् जो ज्ञान आत्मा से ही उत्पन्न होता है, उसे पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं ।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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