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________________ ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा)*279 व्यवहारमूलक है। जो मात्र स्वजन्य हैं, वे ही परमार्थ है और निश्चयनय के विषय हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष के विभाजन में भी यही दृष्टि काम कर रही है और उसके निर्वाह के लिए 'अक्ष' शब्द का अर्थ आत्मा किया गया है। आत्मसाक्षात्कार को प्रत्यक्ष की कोटि में सिर्फ जैन दर्शन ने ही रखा है। साधारणतया प्रत्यक्ष शब्द को इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के रूप में ही प्रयुक्त किया है। अतः जैन दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद बताए गए हैं - 1. इन्द्रिय या सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष, 2. नोइन्द्रिय या पारमार्थिक प्रत्यक्ष। व्यवहार नय से इन्द्रिय ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण के अन्तर्गत रखा गया है। निश्चयनय या पारमार्थिक दष्टि से तो आत्मा के साक्षात ज्ञान को ही प्रत्यक्ष प्रमाण माना गया है। इसके अन्तर्गत 1. अवधिज्ञान 2. मनःपर्ययज्ञान और 3. केवलज्ञान को स्वीकार किया गया है। जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों में इन्द्रिय ज्ञान को ही प्रत्यक्ष प्रमाण कहा गया है। वैशेषिक सूत्र में लौकिक और अलौकिक दोनों प्रकार के प्रत्यक्ष की व्याख्या दी गई है। लेकिन न्याय दर्शन और मीमांसा दर्शन में लौकिक प्रत्यक्ष की ही व्याख्या दी गई है। लौकिक प्रत्यक्ष की व्याख्या में दार्शनिकों ने प्रधान रूप से बहिरिन्द्रिय जन्य ज्ञानों को लक्ष्य में रखा है, ऐसा प्रतीत होता है। न्यायसूत्र, वैशेषिक सूत्र और मीमांसादर्शन की लौकिक प्रत्यक्ष की व्याख्या में सर्वत्र इन्द्रिय जन्य ज्ञान को ही प्रत्यक्ष कहा है। जैन दर्शन के अनुसार इन्द्रिय जन्य ज्ञानों को परोक्ष ज्ञान कहा जाता है। आत्म मात्र सापेक्ष ज्ञान को ही प्रत्यक्ष कहा जाता है। मति और श्रुत दोनों ज्ञान इन्द्रिय और मन की अपेक्षा रखने वाले होने से परोक्ष समझने चाहिये और अवधि आदि तीनों ज्ञान आत्मिक योग्यता से उत्पन्न होने से प्रत्यक्ष। इन्द्रिय तथा मनोजन्य मतिज्ञान को कहींकहीं पूर्वोक्त न्यायशास्त्र के लक्षणानुसार लौकिक दृष्टि की अपेक्षा से प्रत्यक्ष कहा गया है। नन्दीसूत्र में जो इन्द्रिय जन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा गया है, वह भी परसिद्धान्त का अनुसरण करके ही कहा है। ___तत्वार्थ सूत्र में मति ज्ञान की मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध इन शब्दों को पर्यायवाची कहा है। __ "मतिः स्मति: संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोधइत्यनर्थान्तरम। 186 जो ज्ञान इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होता है, अर्थात् वर्तमान विषयक हो उसे मति कहते हैं। पहले अनुभव की हुई वस्तु का स्मरण स्मृति है, इसलिए वह अतीत विषयक है। पहले अनुभव की हुई और वर्तमान में अनुभव की जाने वाली वस्तु की एकता का तालमेल संज्ञा या प्रत्यभिज्ञान है, इसलिए वह अतीत और वर्तमान उभयविषयक है। चिन्ताभावी वस्तु की विचारणा (चिन्तन) है, इसलिए वह अनागत विषयक है।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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