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________________ ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा) 277 सम्यग्दर्शन का अंश होने पर भी वह सम्यग्दृष्टि इसलिए नहीं कहलाता, कि उसके दृष्टि - मोह का अपेक्षित विजय नहीं होता । उपर्युक्त विवेचन से निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं - - 1. तात्विक विपर्यय दृष्टिमोह और व्यावहारिक विपर्यय ज्ञानावरण के उदय का परिणाम है। 2. अज्ञान मात्र ज्ञान का विपर्यय नहीं, तात्विक विप्रतिपत्ति अथवा दृष्टिमोहोदय-संवलित अज्ञान ही ज्ञान का विपर्यय नहीं होता । 3. मिथ्या दृष्टि का अज्ञान मात्र दृष्टि मोह संवलित नहीं होता । इस प्रकार अयथार्थ ज्ञान को विविध रूपों में विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार करने के पश्चात् हम यथार्थ ज्ञान (प्रमाण) के विभिन्न भेदों का विस्तृत विवेचन करेंगे। प्रमाण की संख्या पर तो हम पूर्व में अध्ययन कर ही चुके हैं, अब उनके स्वरूप का विवेचन करेंगे। प्रमाण विवेचन : जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान केवल आत्मा का विकास है । प्रमाण पदार्थ के प्रति ज्ञान का सही व्यापार है। ज्ञान आत्मनिष्ठ है । प्रमाण का सम्बन्ध अन्तर्जगत और बहिर्जगत दोनों से हैं । बहिर्जगत की यथार्थ घटनाओं को अन्तर्जगत तक पहुँचाए, यही प्रमाण का ज्ञान है । बहिर्जगत के प्रति ज्ञान का व्यापार एक सा नहीं होता । ज्ञान का विकास प्रबल होता है, तब वह बाह्य साधन की सहायता के बिना ही विषय को जान लेता है। ज्ञान का विकास कम होता है, तब बाह्य साधन का सहारा लेना पड़ता है। यही प्रमाण भेद का आधार बनता है । प्रमाण के भेदों के सन्दर्भ में विभिन्न दर्शनों में उनकी भिन्न-भिन्न संख्या मानी गई है। नास्तिक चार्वाक केवल एक प्रत्यक्ष प्रमाण को मानते हैं । वैशेषिक दो - प्रत्यक्ष और अनुमान, सांख्य तीन प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द, नैयायिक चार प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द और उपमान, मीमांसक (प्रभाकर) पाँच प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमान और अर्थापत्ति, भट्ट मीमांसा व वेदान्त छह- प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमान, अर्थात् और अभाव। पौराणिक इनके अतिरिक्त सम्भव, एतिह्य, प्रातिम प्रमाण और मानते हैं । जैन दो प्रमाण मानते हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । 1. प्रत्यक्ष : पदार्थ को जो सहायता निरपेक्ष होकर ग्रहण करता है, वह प्रत्यक्ष प्रमाण है। 2. परोक्ष : जो सहायता सापेक्ष होकर पदार्थ को ग्रहण करता है, वह परोक्ष प्रमाण है। इस प्रकार प्रमाण के मुख्य दो भेद हैं प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष के दो भेद होते हैं- व्यवहार प्रत्यक्ष और परमार्थ प्रत्यक्ष । व्यवहार प्रत्यक्ष के चार भेद हैं अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । परमार्थ प्रत्यक्ष के तीन भेद हैं - अवधि, मनः पर्याय -
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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