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________________ ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा) * 265 सूत्रकार को अभिप्रेत माने जाएँ, तो सिद्धसेन सम्मत तीन प्रमाणों का मूल उक्त सूत्र में मिल जाता है। सिद्धसेन ने न्याय परम्परा सम्मत चार प्रमाणों के स्थान में सांख्यादि सम्मत तीन ही प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम को माना है। आचार्य हरिभद्र को भी ये ही तीन प्रमाण मान्य है। ऐसा प्रतीत होता है, कि चरक संहिता में कई परम्पराएँ मिल गई हैं, क्योंकि कहीं तो उसमें चार प्रमाणों का वर्णन है, कहीं तीन का और विकल्प से कहीं दो का भी स्वीकार पाया जाता है। ऐसा होने का कारण यह है, कि चरक संहिता किसी एक व्यक्ति की रचना न होकर कालक्रम से संशोधन और परिवर्धन होते होते यह रूप बना है। यह बात अग्रसारीणी से स्पष्ट हो जाती है चरक संहिता : सूत्र स्थान अ.11 आप्तोपदेश प्रत्यक्ष अनुमान युक्ति विमान स्थान अ. 4 आप्तोपदेश प्रत्यक्ष अनुमान x विमान स्थान अ. 8 (ऐतिह्य) आप्तोपदेश प्रत्यक्ष अनुमान औपम्य विमान स्थान अ. 8 प्रत्यक्ष अनुमान x विमान स्थान अ. 8 प्रत्यक्ष अनुमान x यही स्थिति अन्य जैन आगमों की है। उसमें भी चार और तीन प्रमाणों की परम्पराओं ने स्थान पाया है। स्थानांग के उक्त सूत्र से भी पाँच ज्ञानों से प्रमाणों का पार्थक्य सिद्ध होता ही है। क्योंकि व्यवसाय को पांच ज्ञानों से संबद्ध न कर प्रमाणों से संबद्ध किया है। जैसे वादिदेवसूरि लिखते हैं "स्वपर व्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम्। अर्थात् स्व और पर का निश्चयात्मक ज्ञान ही प्रमाण है। उसी प्रकार अन्य अनेक विद्वानों सिद्धसेन दिवाकर, उमास्वाति, हेमचन्द्रसूरि आदि ने व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण माना है, जिसका विस्तृत विवेचन हम पूर्व में प्रमाण के स्वरुप में कर चुके इस प्रकार आगमों में ज्ञान और प्रमाण का सर्वथा समन्वय नहीं हुआ है, यह नहीं कहा जा सकता। उपर्युक्त तीन प्राचीन भूमिकाओं में असमन्वय होते हुए भी अनुयोग द्वार से यह स्पष्ट है, कि बाद में जैनाचार्यों ने ज्ञान और प्रमाण का समन्वय करने का प्रयत्न किया है। लेकिन यह पंचज्ञानों का समन्वय स्पष्ट रुप से नहीं है, वरन् अस्पष्ट रुप से ही है। इस समन्वय का प्रथम दर्शन अनुयोगद्वार में ही होता है। न्याय दर्शन सम्मत चार प्रमाणों का ज्ञान में समावेश करने का प्रयत्न अनुयोग में ही है। लेकिन यह प्रयास जैन दृष्टि को पूर्णतया लक्ष्य में रखकर नहीं हुआ है। अतः बाद में आचार्यों ने इस प्रश्न को फिर से सुलझाने का प्रयत्न किया और वह इसलिए सफल
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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