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________________ ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा) * 263 तत् में अतत् का ज्ञान होने पर ही ज्ञान में मिथ्यात्व की संभावना रहती है। विज्ञानवादी बौद्धों ने प्रत्यक्ष ज्ञान को वस्तुग्राहक और साक्षात्कारात्मक तथा इतर ज्ञानों को अवस्तुग्राहक, भ्रामक, अस्पष्ट और असाक्षात्कारात्मक माना है। जैनागमों में इन्द्रिय-निरपेक्ष एवं केवल आत्मसापेक्ष ज्ञान को ही साक्षारात्मक प्रत्यक्ष कहा है और इन्द्रिय सापेक्ष ज्ञानों को असाक्षात्कारात्मक और परोक्ष माना गया है। जैन दृष्टि से प्रत्यक्ष ही वस्तु के स्वभाव और विभाव का साक्षात्कार कर सकता है और वस्तु का विभाव से पृथक् जो स्वभाव है, उसका स्पष्ट पता लगा सकता है । इन्द्रिय सापेक्ष ज्ञान में यह कभी संभव नहीं, कि वह किसी वस्तु का साक्षात्कार कर सके और किसी वस्तु के स्वभाव को विभाव से पृथक् कर उसको स्पष्ट जान सके, लेकिन इसका मतलब जैन मतानुसार यह कभी नहीं, कि इन्द्रिय सापेक्ष ज्ञान भ्रम है। विज्ञानवादी बौद्धों ने तो परोक्ष ज्ञानों को अवस्तु ग्राहक होने से भ्रम कहा है, किन्तु जैनाचार्यों ने वैसा नहीं माना। क्योंकि उनके मत में विभाव भी वस्तु का परिणाम है। अतएव वह भी वस्तु का एक रूप है। अतः उसका ग्राहक ज्ञान भ्रम नहीं कहा जा सकता। वह अस्पष्ट हो सकता है, साक्षात्कार रूप न भी हो, तब भी वस्तु स्पर्शी तो है ही। उपर्युक्त सिद्धान्त का प्रतिपादन प्राचीन काल के आगमों से लेकर अब तक के जैन साहित्य में अविच्छिन्न रूप से होता चला आया है। जैन आगमों में प्रमाणचर्चा : जैन आगमों में प्रमाण मीमांसा का विवेचन ज्ञान से पृथक् स्वतंत्र रूप से किया गया है। अधिकांशतः आगमों में प्रमाण चर्चा के प्रसंग में नैयायिकादि सम्मत चार प्रमाणों का उल्लेख मिलता है। कहीं-कहीं तीन प्रमाणों का भी उल्लेख है। भगवती सूत्र में गौतम स्वामी भगवान महावीर से पूछते हैं, कि जैसे केवलज्ञानी अंतकर या अंतिम शरीरी को जानते हैं, वैसे ही क्या छद्मस्थ भी जानते हैं? उसके उत्तर में भगवान महावीर ने कहा कि - "गोयमा णो तिणटे समटे। सोच्चा जाणंति पासति पमाणतो वा। से किं तं सोच्चा? केवलिस्स वा केवलिसावयस्स वा केवलिसावियाए वा केवलिउवासगस्स वा केवलिउवासियाए वासे तं सोच्चा। से किं तं प्रमाणं? पमाणे चउविहे पण्णते-तंजहा पच्चक्खे अणुमाणे ओवम्मे आगमे जहा अणुओग द्वारे तत णेयव्वं पमाणं।"7 उपर्युक्त कथन में स्पष्ट है, कि पाँचों ज्ञानों के आधार पर उत्तर न देकर मुख्यरूप से प्रमाण की दृष्टि से उत्तर दिया गया है। ‘सोच्चा' पद से श्रुतज्ञान को लिया जाए, तो विकल्प से अन्य ज्ञानों को लेकर उत्तर दिया जा सकता था। लेकिन ऐसा न करके पर दर्शनों में प्रसिद्ध प्रमाणों के आधार पर उत्तर दिया गया है। यह सूचित करता है, कि जैनेतर दर्शनों में प्रसिद्ध प्रमाणों से शास्त्रकार अनभिज्ञ नहीं थे और वे
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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