SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 260 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन श्रुत निःसृत अवग्रह ईहा अवाय धारणा व्यंजनावग्रह अर्थावग्रह लेकिन स्थानांग में द्वितीय स्थानक का प्रकरण होने से दो-दो बातें गिनना चाहिये, ऐसा समझकर अवग्रह, ईहा आदि चार भेदों को छोड़कर सीधे अवग्रह के दो भेद ही गिनाये गए हैं। एक अन्य बात की ओर भी ध्यान देना आवश्यक है। अश्रुतनिःसृत के भेद रूप से भी व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह बताया है, जबकि वहाँ भी टीकाकार के मत से निम्नलिखित वर्गीकरण होना चाहिये - अश्रुत निःसृत इन्द्रियजन्य अनिन्द्रियजन्य अवग्रह ईहा अवाय धारणा औत्पत्तिकी वैनयिकी कर्मजा पारिणामिकी व्यंजनावग्रह अर्थावग्रह औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियाँ मानस होने से उनमें व्यंजनावग्रह का संभव नहीं। अतएव मूल सूत्रकार का कथन इन्द्रियजन्य अश्रुत निःसृत की अपेक्षा से द्वितीय स्थानक के अनुकूल हुआ है, यह टीकाकार का स्पष्टीकरण है। लेकिन यहाँ प्रश्न है, कि क्या अश्रुत निःसृत में औत्पत्तिकी आदि के अतिरिक्त इन्द्रयज ज्ञानों का समावेश साधार है? तथा क्या आभिनिबोधिक के श्रुत निःसृत और अश्रुतनिःसृत ये भेद प्राचीन है? अर्थात् क्या ऐसा भेद प्रथम भूमिका के समय होता था? नन्दीसूत्र जो, कि मात्र ज्ञान की ही विस्तृत चर्चा करने के लिए बना है, उसमें श्रुत निःसृत मति के ही अवग्रह आदि चार भेद हैं और अश्रुत निःसृत के भेदरूप से चार बुद्धियों को गिना दिया गया है। उसमें इन्द्रियज अश्रुत निःसृत को कोई स्थान नहीं है। अतएव टीकाकार का स्पष्टीकरण, कि अश्रुतनिःसृत के वे दो भेद इन्द्रियज अश्रुतनिःसृत की अपेक्षा से समझना चाहिये, नन्दीसूत्रानुकूल नहीं, वरन् कल्पित है। मतिज्ञान के श्रुतनिःसृत और अश्रुतनिःसृत ऐसे दो भेद भी प्राचीन नहीं। दिगम्बरीय
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy