SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 258 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन इस वाक्य से स्पष्ट फलित होता है, कि कम से कम उक्त आगम के संकलनकर्ता के मत से पूर्व भी श्रमणों में पंचज्ञान की मान्यता थी, जो निर्मूल भी नहीं है। उत्तराध्ययन के 23वें अध्ययन से यह स्पष्ट है, कि भगवान महावीर ने आचार विषयक कुछ संशोधनों के अतिरिक्त तीर्थंकर पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित तत्त्वज्ञान में संशोधन नहीं किया। यदि महावीर ने तत्त्वज्ञान में भी कुछ नई संकल्पनाएँ प्रतिपादित की होती तो उनका निरूपण भी आगमों में अवश्य ही होता। ___आगमों में पाँच ज्ञानों के भेदोपभेदों का जो वर्णन है, जीव मार्गणाओं में पाँच ज्ञानों की जो घटना वर्णित है तथा पूर्वगत में ज्ञानों का स्वतन्त्र निरुपण करने वाला जो ज्ञान प्रवाद पूर्व है, इन सबसे यही फलित होता है, कि पंचज्ञान की चर्चा भगवान महावीर ने नयी प्रारंभ नहीं की है, वरन् पूर्व परम्परा जो चली आ रही थी, उसी का नवीन रूप से प्रवर्तन किया है। इस ज्ञान मीमांसा के विकास क्रम को समझने के लिए आगम में हमें उनकी तीन भूमिकाएँ स्पष्ट दिखाई देती हैं - 1. प्रथम भूमिका में ज्ञानों को पाँच भेदों में ही विभक्त किया गया है। 2. द्वितीय भूमिका में ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेदों में विभक्त करके पाँच ज्ञानों में से मति और श्रुत को परोक्षान्तर्गत और शेष अवधि, मनः पर्याय और केवलज्ञान का प्रत्यक्ष में अन्तर्निहित किया गया है। इस भूमिका में लोकानुसरण करके इद्रिय जन्य प्रत्यक्ष को अर्थात् इन्द्रियजमति को प्रत्यक्ष में स्थान नहीं दिया है, किन्तु जैन सिद्धान्त के अनुसार जो ज्ञान आत्म मात्र सापेक्ष है, उन्हें ही प्रत्यक्ष में स्थान दिया गया है। जो ज्ञान आत्मा के अतिरिक्त अन्य साधनों की भी अपेक्षा रखते हैं, उनका समावेश परोक्ष में किया गया है। यही कारण है, कि इन्द्रिय जन्य ज्ञान जिसे जैनेतर सभी दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष कहा है, जैन आगमिकों ने उसे प्रत्यक्ष के अन्तर्गत नहीं माना है। 3. तृतीय भूमिका में इन्द्रिय जन्य ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष उभय में स्थान दिया गया है। इस भूमिका में लोकानुसरण स्पष्ट है। प्रथम भूमिका के अनुसार ज्ञान का वर्णन हमें भगवती सूत्र में मिलता है। उसके अनुसार ज्ञान को निम्नलिखित सारीणी के रूप में विभक्त किया जा सकता है ज्ञान । आभिनिबोधिक श्रुत अवधि मनःपर्याय केवल ईहा अवाय अवग्रह धारण धारणा
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy