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________________ जैन दार्शनिक सिद्धान्त 239 I प्रयोग किया जाता है । उसी प्रकार 'स्यात् ' पद का प्रयोग भी स्पष्टता और भ्रान्ति निवारण के लिए करना उचित है। संसार में समझदारों की अपेक्षा नासमझों की संख्या ही औसत दर्जे अधिक रहती आई है । अतः सर्वत्र 'स्यात्' पद का प्रयोग करना ही राजमार्ग है। अन्य दर्शनों में भंग योजना : स्यादस्ति अवक्तव्य आदि तीन भंग परमत की अपेक्षा इस तरह लगाये जाते हैं । अद्वैतवादियों का सन्मात्र तत्त्व अस्ति होकर भी अवक्तव्य है, क्योंकि केवल सामान्य वचनों में वचनों की प्रवृत्ति नहीं होती । बौद्धों का अन्यापोह नास्तिरूप होकर भी अवक्तव्य है, क्योंकि शब्द के द्वारा मात्र अन्य का अपोह करने से किसी विधि रूप वस्तु का बोध नहीं हो सकेगा । वैशेषिक के स्वतन्त्र सामान्य और विशेष अस्ति नास्ति सामान्य विशेष रूप होकर भी अवक्तव्य है- शब्द के वाच्य नहीं हो सकते, क्योंकि दोनों को स्वतन्त्र मानने पर उनमें सामान्य- विशेष भाव नहीं हो सकता । सर्वथा भिन्न सामान्य और विशेष में शब्द की प्रवृत्ति नहीं होती और न उनसे कोई अर्थक्रिया ही हो सकती है। सकला देश और विकला देश : श्रुत ज्ञान के दो उपयोग हैं - एक स्याद्वाद् और दूसरा नय । स्याद्वाद सकलादेश रूप होता है और नय विकला देश । सकलादेश को प्रमाण तथा विकलादेश को नय कहते हैं । सप्तभंगी जब सकलादेशी होते हैं, तब प्रमाण और जब विकलादेशी होते हैं, तब नय कहे जाते हैं । इस प्रकार सप्तभंगी भी प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी रूप से विभाजित हो जाते हैं । एक धर्म के द्वारा समस्त वस्तु को अखंड रूप से ग्रहण करने वाला सकलादेश है तथा उसी धर्म को प्रधान तथा शेष धर्मों को गौण करने वाला विकलादेश है । स्यादवाद अनेकान्तात्मक अर्थ को ग्रहण करता है। जैसे जीव कहने से ज्ञान, दर्शन आदि असाधारण गुण वाले सत्व प्रमेयत्वादि साधारण स्वभाव वाले तथा अमूर्तत्व, असंख्यात प्रदेशित्व आदि साधारण असाधारण धर्मशाली जीव का समग्र भाव से ग्रहण हो जाता है। इसमें सभी धर्म एक रूप से ग्रहीत होते हैं, अतः गौण मुख्य व्यवस्था अन्तर्लीन हो जाती है । विकलादेशी नय एक धर्म का मुख्य रूप से कथन करता है। जैसे- 'ज्ञो जीवः', कहने से जीव के ज्ञान गुण का मुख्यता से बोध होता है, शेष धर्मों का गौण रूप से उसी के गर्भ में प्रतिभास होता है । विकला अर्थात् एक धर्म का मुख्य रूप से ज्ञान कराने के कारण ही यह वाक्य विकला देश या नय कहा जाता है। विकलादेशी वाक्य में भी 'स्यात् पद' का प्रयोग होता है। जो विशेष धर्मों की गौणता अर्थात् उनका अस्तीत्व मात्र सूचित करता है। इसीलिए 'स्यात्' पदलांछित नय सम्यक्नय कहलाता है । नयवाद : नयवाद को स्याद्वाद का एक स्तम्भ कहना चाहिये । स्याद्वाद जिन विभिन्न दृष्टिकोणों का अभिव्यंजक है, वे दृष्टिकोण जैन परिभाषा में नय नाम से
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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