SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 236 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन त्रिकालाबाधित होता है, अतः तर्क जन्य प्रश्नों की अधिकतम संभावना करके ही सप्तभंगी की प्रक्रिया से उसका समाधान किया गया है। जैसे सौंठ, मिरच और पीपल के प्रत्येक-प्रत्येक तीन स्वाद और द्विसंयोगी तीन (सौंठ-मिरच, सौंठ-पीपल और मिरच पीपल) तथा एक त्रिसंयोगी (सोंठ-मिरच-पीपल मिलाकर) इस तरह अपुनरुक्त स्वाद सात ही हो सकते हैं। उसी प्रकार सत्, असत् और अवक्तव्य के अपुनरुक्त भंग सात ही हो सकते हैं। ये सातों प्रकार के अपुनरुक्त धर्म प्रत्येक वस्तु में विद्यमान हैं। यहाँ यह बात खास तौर से ध्यान रखने की है, कि एक-एक धर्म को केन्द्र में रखकर उसके प्रतिपक्षी विरोधी धर्म के साथ वस्तु के वास्तविक रूप या शब्द की असामर्थ्य जन्य अवक्तव्यता को मिलाकर सात भंगों या सात धर्मों की कल्पना होती है। ऐसे असंख्य सात-सात भंग प्रत्येक धर्म की अपेक्षा से वस्तु में सम्भव है। इसलिए वस्तु को सप्त धर्मा न कहकर अनन्त धर्मा या अनेकान्तात्मक कहा गया है। जब हम अस्तित्व धर्म का विचार करते हैं, तो अस्तीत्व विषयक सात भंग बनते हैं और जब नित्यत्व धर्म की विवेचना करते हैं, तो नित्यत्व को केन्द्र में रखकर सात भंग बनते हैं। इस प्रकार असंख्य सात-सात भंग वस्तु में संभव होते हैं। सप्त-भंगी : संसार में प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। उन अनन्त धर्मों में से प्रत्येक धर्म की ठीक-ठीक संगति बिठलाने के लिए विधि, निषेध अदि की विवक्षा से सात भंग होते हैं। यही सप्त भंगी है। श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों में यद्यपि कण्ठोक्त रूप में ‘सिय अत्थि सिय णत्थि सिय अवत्तव्वा' रूप तीन भंगों के नाम मिलते हैं, पर भगवती सूत्र में जो आत्मा का वर्णन आया है, उसमें स्पष्ट रूप से सातों भंगों का प्रयोग किया गया है।” आ. कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय” में सात भंगों के नाम गिनाकर 'सप्तभंग' शब्द का भी प्रयोग किया है। इसमें अन्तर इतना ही है, कि भगवती सूत्र में तथा विशेषावश्यक भाष्य' में अवक्तव्य को तीसरा भंग माना है। जबकि कुन्दकुन्दाचार्य ने उसे पंचास्तिकाय में चौथा भंग मानकर भी प्रवचनसार में तीसरे नम्बर पर रखा है। उत्तरकालीन दिगम्बर श्वेताम्बर तर्क ग्रन्थों में इस भंग का दोनों ही क्रम से उल्लेख मिलता है। सप्तभंगी के ये सात भंग प्रत्येक धर्म पर घटित होते है। यहाँ समझने के लिए हम सत्ता धर्म के द्वारा उनका उल्लेख करते हैं। वे निम्नलिखित 1. स्याद् अस्ति : स्वकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व है। जैसे 'स्याद्, अस्ति घटः' इस कथन का तात्पर्य है, कि घड़ा स्वचतुष्टय से अस्तित्ववान है। पर चतुष्टय की अपेक्षा से नहीं। अर्थात् घड़ा द्रव्य से मिट्टी का बना है, क्षेत्र में जोधपुर में बना है, काल से शरद ऋतु में बना है और भाव से काले रंग का है। घड़ा उपर्युक्त चतुष्टय रूप से सत्तावान है, अन्य चतुष्टय रूप से नास्ति है।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy