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________________ 234 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन स्वीकार करता है। नैयायिक-वैशेषिक सामान्य विशेष दोनों तत्वों को स्वीकार करते हैं, परन्तु वे पदार्थ से इनको सर्वथा भिन्न मानते हैं और समवाय सम्बन्ध से पदार्थ में संबंधित होना मानते हैं। उपर्युक्त तीनों दृष्टिकोण एकान्तवादी हैं। यदि हम वस्तु में किसी एक धर्म को ही स्वीकार करें, तो व्यवहारिक जीवन में ही वस्तुओं का यथार्थ ज्ञान नहीं हो पाएगा। यदि हम वस्तु में सामान्य धर्म को न मानकर विशेष को ही मानें तो गाय को गाय और हाथी को हाथी के रुप में पृथक्-पृथक् कैसे जानेंगे? यदि गाय में गोत्व और हस्ति में हस्तित्व को स्वीकार न करें तो दोनों को एकरुप ही मानना होगा जो, कि नहीं है। इसी प्रकार यदि विशेष को न माने और केवल सामान्य को ही मानें, तब भी वस्तु का यथार्थ ज्ञान संभव नहीं है। जैसे-मनुष्यत्व, सामान्य के आधार पर हम मनुष्य को देखकर यह तो जान सकते है, कि यह मनुष्य है, लेकिन यह जानना संभव नहीं कि यह राम है, अथवा श्याम? जैसा कि दो हमशक्ल व्यक्तियों के संदर्भ में अधिकांशतः हो जाता है। व्यक्ति को व्यक्तिशः पहचानने के लिए उसके गोरे, काले, छोटे, लम्बे आदि विशेष धर्मों को भी स्वीकार करना आवश्यक है। अतः स्याद्वाद समन्वयात्मक दृष्टिकोण को अपनाते हुए वस्तु को सामान्य विशेषात्मक मानता है और यही युक्ति युक्त भी है। इस प्रकार स्याद्वाद के अनुसार अन्यान्य एकान्तिक दृष्टिकोणों के लिए भी उसी प्रकार समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाना चाहिये। एकान्तवादियों को अपने एकान्तिक आग्रहों को छोड़कर दूसरे की दृष्टि को भी समझना व अपनाना चाहिये। स्याद्वाद ने अपनी स्यातमूलक कथन प्रणाली के द्वारा उन सभी उपस्थित संघर्षों का शमन किया है, जो समन्वय के अभाव में परस्पर विरोधी बनकर विषाक्त चिंतन का वातावरण निर्मित कर रहे थे। एकान्तिक विचारधाराओं के सन्दर्भ में स्यावाद का स्पष्ट कथन है, कि भाव-अभाव, एक-अनेक, नित्य-अनित्य, सत्-असत् आदि जो भी दृष्टि भेद अथवा वैचारिक संघर्ष है, वे सर्वथा मानने से दुष्ट या विरोधी होते हैं और स्यात्, कथंचित, अपेक्षा विशेष से मानने पर पुष्ट होते हैं- वस्तु स्वरुप एवं सद्विचारों का पोषण करते हैं, अतएव जैन दर्शन में इन एकांतिक दृष्टियों का तिरस्कार नहीं किया गया है, वरन् उन्हें नय के रुप में स्वीकार किया है। जो अपने दृष्टिकोण को व्यक्त करते हुए भी दूसरे की दृष्टि की उपेक्षा नहीं करते हैं। इसके लिए ही स्यात् शब्द का प्रयोग करते हैं। स्यावाद निरपेक्ष नय प्रणाली को मिथ्या और सापेक्षनयों को सम्यक् बताता है। अर्थात् इसे सापेक्षता का सिद्धान्त भी कह सकते हैं। इसी सापेक्षता को वचन प्रणाली में व्यक्त करने के लिए जैन दर्शन में सप्त भंगीनय का प्रतिपादन किया गया है, जिससे वस्तु में प्रत्येक धर्म की संगति एकदम निर्विवाद हो सके।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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