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________________ जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 221 तो यह कथन गलत कैसे हो सकता है, कि घड़ा अपने स्वरूप से अस्ति है तथा स्वभिन्न पररूपों से नास्ति है। इस प्रकार घड़े में अनन्त पर रूप की अपेक्षा से नास्तित्व है, अन्यथा दुनिया में कोई शक्ति ऐसी नहीं जो घड़े को कपड़ा बनने से रोक सकती। यह नास्तित्व धर्म ही घड़े को घड़े के रूप में कायम रखता है। इसी नास्ति धर्म की सूचना ‘अस्ति' के प्रयोग काल में 'स्यात' शब्द देता है। इसी प्रकार 'घड़ा समग्र भाव से एक होकर भी अपने रूप रस, गन्ध, स्पर्श, छोटा, बडा, हलका, भारी आदि अनन्त गुण और धर्मों की दृष्टि से अनेक रूपों में दिखाई देता है या नहीं?' यदि अनेक रूप में दिखाई देता है, तो यह कथन गलत कैसे हो सकता है, कि घड़ा द्रव्य रूप से एक होकर भी अपने गुण धर्म और शक्ति आदि की दृष्टि से अनेक है। इस प्रकार जब प्रत्यक्ष से वस्तु में अनेक विरोधी धर्मों का स्पष्ट प्रतिभास होता है। वस्तु स्वयं अनन्त विरोधी धर्मों का अविरोधी क्रीड़ा स्थल है। तब मनुष्य को अपनी दृष्टि और बुद्धि की सीमाओं को स्वीकार करते हुए, वस्तु के स्वरूप को विकृत रूप में देखने तथा संशय और विरोध उत्पन्न करने की धृष्टता नहीं करनी चाहिये। इसके लिए उस महान् ‘स्यात्' शब्द को, जो वस्तु के इस पूर्ण रूप की झाँकी सापेक्ष भाव से बताता है, उसे स्वीकार कर लेना चाहिये। यही एक साधन है, जो जीव की दृष्टि को निर्मल और विशाल बनाकर अनन्त धर्मात्मक विश्व को समझाने में सक्षम है। एकान्तवाद की स्थिति : किसी भी वस्तु के किसी एक ही पक्ष से उसके स्वरूप के विषय में निर्णय करना एकान्तवाद है। अन्य दर्शनकारों ने अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक-एक धर्म को पकड़कर उसे ही समग्र वस्तु मान लेने की भूल की है। जैसे बौद्ध दर्शन वस्तु की क्षणिक पर्याय को ही समग्र वस्तु मान लेता है और वस्तु के द्रव्यात्मक नित्य पक्ष को सर्वथा अस्वीकार करता है। वेदान्त एवं सांख्य दर्शन वस्तु को सर्वथा नित्य-कूटस्थ मानकर उसकी क्षणिक पर्यायों का सर्वथा निषेध करते हैं। न्याय-वैशेषिक दर्शन यद्यपि वस्तु में नित्यत्व और अनित्यत्व दोनों को मानते हैं, तथापि वे किसी वस्तु को सर्वथा नित्य तथा किसी वस्तु को सर्वथा अनित्य मानते हैं। साथ ही वे पदार्थ के नित्यत्व और अनित्यत्व को पदार्थ से भिन्न मानते हैं। जबकि वह वस्तु का तादात्म्य स्वरूप है। ये दर्शनकार परस्पर विरोधी एवं एकांगी मत लेकर परस्पर विवाद करते हैं। उनका यह विवाद अन्धगज न्याय की भाँति है। सात अन्धे व्यक्तियों ने हाथी के पैर, पूँछ, सँड, पेट आदि एक-एक अवयव को पकड़कर उसके अनुसार ही हाथी का अलग-अलग रूप से प्रतिपादन किया है। एक कहने लगा हाथी मूसल जैसा है, कोई कहने लगा हाथी खंभे जैसा है, कोई कहने लगा रस्सी जैसा है, कोई कहने लगा ढोल जैसा है। कोई भी दूसरे की बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुआ। सब अपनी-अपनी बात पर अड़े रहे-झगड़ते
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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