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________________ जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता* 19 4. साधु जब तक आत्मस्वरूप को नहीं जानता, तब तक वह कुछ नहीं जानता। वह कोरा अज्ञानी है। जब तक वह कर्मकाण्ड (यज्ञ आदि) में फँसा रहता है, तब तक आत्मा और शरीर का संयोग छूटता नहीं है और मन के द्वारा कर्मों का बन्ध भी रुकता नहीं है। 5. जो सद्ज्ञान प्राप्त करके भी सदाचार का पालन नहीं करते, वे विद्वान् प्रमादी बन जाते हैं। मनुष्य अज्ञान भाव से ही मैथुन भाव में प्रवेश करता है और अनेक सन्तापों को प्राप्त करता है। 6. नर का नारी के प्रति काम-भाव ही हृदय की ग्रन्थि है। इसी कारण जीव का घर, खेत, पुत्र, कुटुम्ब और धन से आकर्षण होता है, मोहासक्ति बढ़ती 7. जब हृदय-ग्रन्थि को बनाए रखने वाले मन का बन्धन शिथिल हो जाता है, तब जीव इस संसार से छूटने लगता है और मुक्ति प्राप्त कर परम लोक में पहुँच जाता है। 8. सार-असार का भेद जानने वाला जीव वीतराग पुरुष की भक्ति करता है। भक्ति से अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है। तब जीव तृष्णा, सुख-दुःख का त्याग कर तत्त्व को जानने की इच्छा करता है तथा तप के द्वारा सब प्रकार की चेष्टाओं की निवृत्ति करता है तभी आत्मा कर्मों का नाश करके मुक्ति प्राप्त करती है। 9. विषयों की अभिलाषा ही अन्धकूप के समान नरक में जीव को पटकने वाली है। 10. हे पुत्रों! जो हेयोपादेय की विवेक दृष्टि से शून्य है और कामनाओं से परिपूर्ण है, वह संसारी कल्याण के मूलपथ को नहीं पहचान सकता। 11. जो पुरुष बुद्धि को मोह में उलझाकर और कुबुद्धि बनकर उन्मार्ग पर चलता है, दयालु विद्वान् उसे कभी भी उन्मार्ग पर नहीं चलने देते। 12. हे पुत्रों! जो स्थावर और जंगम जीवों की आत्मा को भी मेरे समान ही समझता है और कर्मावरण के भेद को पहचानता है, वही धर्म प्राप्त करता है। धर्म का मूल तत्त्व समदर्शन है। 13. जो साधक यमों (महाव्रतों)को ग्रहण करता है और आध्यात्म योग विविक्त सेवा द्वारा उसका साक्षात्कार करता है, वह अप्रमादी साधक मुक्ति के निकट पहुँचता है। 14. जो सर्वत्र विचक्षणता पूर्वक ज्ञान, विज्ञान, योग, धैर्य, उद्यम तथा सत्व से __ युक्त होकर विचरण करता है, वही कुशल है और वही मेरा अनुयायी है। 15. कर्माशय को विध्वंस करने के लिए हृदय ग्रंथि को नष्ट करो, यही बंध
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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