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________________ जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 189 अर्थ-क्रिया-कारित्व होता है। दूसरे शब्दों में ऐसा भी कहा जा सकता है, कि जैसे पथ्य भोजन आरोग्य देना नहीं जानता और दवा रोग मिटाना नहीं जानती, फिर भी पथ्य भोजन से स्वास्थ्य लाभ होता है और औषधि सेवन से रोग मिटता है। बाह्य रूप से ग्रहण किए हुए पुद्गलों का जब इतना असर होता है, तो आन्तरिक प्रवृत्ति से गृहित कर्म पुद्गलों का आत्मा पर असर होने में सन्देह कैसा? उचित साधनों के सहयोग से विष और औषधि के प्रभाव और शक्ति में परिवर्तन किया जा सकता है। वैसे ही तपस्या आदि साधनों से कर्म की फल देने की शक्ति में भी परिवर्तन किया जा सकता है। अधिक स्थिति के एवं तीव्र फल देने वाले कर्म में भी उनकी स्थिति और फल देने की शक्ति में अपवर्तना के द्वारा न्यूनता की जा सकती है। प्रत्येक आत्मा (जीव) सुख चाहता है, दुःख नहीं। तो फिर वह पाप का फल स्वयं क्यों भोगे? इस पर इतना ही कहना पर्याप्त होगा, कि सुख-दुःख आत्मा के पुण्य-पाप के अनुसार ही मिलते हैं, न कि इच्छानुसार। यदि चाहने के अनुसार मिले तब तो कर्म कोई चीज नहीं। जो कुछ इच्छा की, वही मिल गया। ऐसी हालत में तो बस इच्छा ही सार है, चाहे उसे चिन्तामणी कहें, चाहे कल्पवृक्ष। यदि कर्म कोई वस्तु है, तो उसके अनुसार ही फल मिलेगा। अच्छे कर्म का अच्छा फल होगा, बुरे का बुरा । बुद्धि कर्मानुसारिणी - इस छोटे से वाक्य से यह विषय और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है। जैसा कर्म होता है, वैसी ही बुद्धि हो जाती है। जैसी बुद्धि होती है, वैसा ही काम किया जाता है और वैसा ही फल मिलता है। अतएव कर्म का फल भोगने में किसी न्यायाधीश की जरुरत नहीं। कर्म बन्ध के साथ ही फल दान के सामर्थ्य का भी बन्धन हो जाता है। कर्मबन्ध के समय चार प्रकार के बन्ध होते हैं - 1. प्रकृति बन्ध : बद्ध कर्म आत्मा के कौन से गुण को आवृत करेगा। 2. स्थिति बन्ध : कितने समय तक उसका बन्धन रहेगा। 3. अनुभाग बन्ध : कर्म किस रूप में उदय आयेगा - सामान्य या विशिष्ट । 4. प्रदेश बन्ध : दल संचय सघन होगा या विरल।" इन चार प्रकारों से कर्म की फलदान क्षमता भी बन्ध के साथ ही निश्चित हो जाती है। कर्म-बन्ध होने के उपरान्त अन्दर एक प्रक्रिया चलती रहती है, वह समय पर सब कुछ सम्पन्न कर देती है। बीज बोने के बाद ऊपर तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता, किन्तु भीतर एक प्रवाह प्रवाहित होता है और समय पर सब आवरणों को हटाकर बीज अंकुरित हो जाता है। जिस प्रकार के कर्मों का बन्ध हुआ होता है, उनके अनुरूप ही उनका फल मिलता है।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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