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________________ जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 187 नहीं। इसलिए आत्मा की मुक्ति होने में कोई आपत्ति नहीं, यदि वह प्रयास करे। कर्म और उसका फल : सांसारिक जीव जो विविध प्रकार के कर्मों का बन्धन करते हैं, उन्हें विपाक की दृष्टि से भारतीय चिन्तकों ने दो भागों में विभक्त किया है, शुभ और अशुभ, पुण्य और पाप अथवा कुशल और अकुशल। इन दो भेदों का उल्लेख जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन, सांख्य दर्शन, योग दर्शन, न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन और उपनिषद् आदि सभी ने किया है। जिस कर्म के फल को प्राणि अनुकूल अनुभव करता है, वह पुण्य है और जिस कर्म के फल को प्राणी प्रतिकूल अनुभव करता है, वह पाप है। पुण्य के फल की सभी इच्छा करते हैं, किंतु पाप के फल की कोई इच्छा नहीं करता। इच्छा न करने पर भी उसके विपाक से बचा नहीं जा सकता। जीव ने जो कर्म बांधा है, उसे इस जन्म में या आगामी जन्मों में भोगना ही पड़ता है। कृत कर्मों का फल भोगे बिना आत्मा का छुटकारा नहीं हो सकता।' भगवान महावीर के जीवन प्रसंगों से भी यह बात स्पष्ट है, कि उन्हें साधनाकाल में जो रोमांचकारी कष्ट सहने पड़े थे, उनका मूल कारण पूर्वकृत कर्म ही थे। जैन दर्शन का यह स्पष्ट उद्घोष है, कि जो भी सुख और दुःख प्राप्त हो रहा है, इसका निर्माता आत्मा स्वयं ही है। आत्मा जैसा कर्म करेगा वैसा ही उसे फल भोगना पड़ेगा। कर्म फल के इस विवेचन से यह प्रश्न उठता है, कि आत्मा स्वतन्त्र है या कर्म के आधीन? इसका समाधान जैन दर्शन इस प्रकार करता है, कि कर्म की मुख्यतः दो अवस्थाएँ बातयी गई हैं - बंध (ग्रहण) और उदय (फल)। कर्म को बाँधने में जीव स्वतंत्र है, फल भोग में कर्म के अधीन है। जिस प्रकार कोई व्यक्ति वृक्ष पर चढ़ता है, वह चढ़ने में स्वतन्त्र है अपनी इच्छानुसार चढ़ सकता है, किन्तु असावधानीवश गिर जाए तो वह गिरने में स्वतंत्र नहीं है। वह इच्छा से गिरना नहीं चाहता तथापि गिर जाता है, अतः गिरने में परतन्त्र है। इसी प्रकार भंग पीने में व्यक्ति स्वतंत्र है, किन्तु उसका परिणाम भोगने में परतन्त्र है। उसकी इच्छा न होते हुए भी भंग अपना चमत्कार दिखलाएगी ही। उसकी इच्छा का फिर कोई मूल्य नहीं। जैसा कि गीता में भी कहा गया है - “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेसु कदाचन मा कर्म फल हेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्व कर्मणि।१० अर्थात् तेरा कर्म करने मात्र में अधिकार है, फल में कभी नहीं। तू कर्म फल में आसक्त मत हो, वह कर्मानुसार उसके कारण के अनुरूप ही प्राप्त होगा। उपर्युक्त कथन का यह तात्पर्य नहीं है, कि बद्ध कर्मों के विपाक में आत्मा कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता। जैसे भंग के नशे की विरोधी वस्तु के सेवन से भंग का नशा नहीं चढ़ता अथवा नाममात्र को चढ़ाता है। उसी प्रकार अध्ययवसायों के द्वारा पूर्वबद्ध कर्म के विपाक को मन्द भी किया जा सकता है और नष्ट भी किया जा
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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