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________________ जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता 15 आवश्यक समझा । जैन दर्शन में महावीर के इस सुधार के सम्बन्ध में डॉ. याकोबी कहते हैं, कि पार्श्वनाथ और महावीर के अन्तराल समय में साधू संस्था में चारित्र की शिथिलता आ गई हो ऐसी शास्त्र के तर्क से पूर्व सूचना मिलती है और ऐसा तभी संभव है, जब कि हम दो तीर्थंकरों के बीच पर्याप्त समयान्तर मान लेते हैं और पार्श्वनाथ के 250 वर्ष बाद महावीर हुए, यह सामान्य दन्तकथा इस मान्यता से एकदम मेल खा जाती है । " इस प्रकार बौद्ध ग्रन्थों से ही हमें ऐसे ठोस प्रमाण प्राप्त होते हैं, कि जो पार्श्वनाथ के जीवन की ऐतिहासिकता को प्रमाणित करते हैं । इसी से यह स्वतः सिद्ध हो जाता है, कि बुद्ध और महावीर से बहुत पूर्व ही जैन दर्शन अस्तित्व में था । मि. टी. डब्ल्यू. राईस डेविड लिखते हैं, कि " जैन मत बौद्धमत से निःसन्देह बहुत पुराना है और बुद्ध के समकालीन महावीर द्वारा पुनः संजीवित हुआ है और यह बात भी भली प्रकार से निश्चय है, कि जैन मत के मन्तव्य बहुत ही जरूरी और बौद्ध मत के मंतव्यों से बिल्कुल विरुद्ध हैं । ये दोनों मत न केवल धर्म से स्वाधीन हैं, वरन् एक दूसरे से निराले हैं। " जैन दर्शन के काल निर्णय में ऐसे अनेक प्रमाण हैं । सेल ब्रुक साहब ने भी जैन दर्शन की प्राचीनता को स्वीकार किया है। इतना ही नहीं वरन् बौद्ध धर्म जैन धर्म से निकला हुआ होना चाहिए, ऐसा विधान किया है। एडवर्ड थॉमस ने भी 'जैनधर्म या अशोक की पूर्व श्रद्धा' नामक ग्रन्थ में इसी आशय के प्रमाण दिये हैं। चन्द्रगुप्त (अशोक के दादा) स्वयं जैन था, इस बात को वंशावली का दृढ़ आधार प्राप्त है। राजा चन्द्रगुप्त श्रमण अर्थात् जैन गुरु से उपदेश लेता था । ऐसा मेगस्थनीज ग्रीक इतिहासकार की भी साक्षी है । अबुल फज़ल नामक फारसी ग्रन्थकार ने 'अशोक ने कश्मीर में जैन धर्म का प्रचार किया' ऐसा कहा है। राजतरंगिणी नामक कश्मीर के संस्कृत इतिहास में भी इस प्रकार के उल्लेख प्राप्त होते हैं । जहाँ बौद्ध दर्शन जैन दर्शन को पार्श्वनाथ जितना प्राचीन सिद्ध करता हैं । वैदिक दर्शन उसे बहुत आगे ले जाता है । ये जैन मान्यतानुसार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव तक जैन दर्शन की प्राचीनता का समर्थन करते हैं । वैदिक दर्शन के प्रमाण : जैन धर्म दर्शन विश्व का सबसे प्राचीन धर्म है। वह न वैदिक धर्म की शाखा है और न ही बौद्ध धर्म की वरन् यह स्वतंत्र धर्म दर्शन है। यह सत्य है, कि जैन धर्म शब्द का प्रयोग वेदों में पिटकों में और आगमों में देखने को नहीं मिलता है, जिसके कारण तथा साम्प्रदायिक अभिनिवेश के कारण कितने ही इतिहासकारों ने जैन धर्म को अर्वाचीन मानने की भयंकर भूल की है । जब हम ऐतिहासिक दृष्टि से जैन धर्म का अध्ययन करते हैं, तब सूर्य के प्रकाश के समान यह स्पष्ट ज्ञात होता है, कि जैन धर्म विभिन्न युगों में विभिन्न नामों
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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