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________________ जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता 13 जैन धर्म दिखलाई पड़ा था।” इन भ्रामक और असत्य अनुमानों को प्रस्तुत करने वाले विचारक जैन दर्शन ही नहीं वरन् संपूर्ण भारतीय दर्शन के इतिहास से अनभिज्ञ ही हैं । यहाँ तक, कि बौद्ध दर्शन के ये पक्षपाती बौद्ध दर्शन का भी परिपूर्ण ज्ञान नहीं रखते । अन्यथा वे ऐसे भ्रामक विचार कभी नहीं रखते, क्योंकि स्वयं बौद्ध दर्शन में भी जैन दर्शन की प्राचीनता के प्रमाण विद्यमान हैं । बौद्ध ग्रंथ धम्मपद में विविध स्थानों पर जैन संस्कृति के शब्दों का प्रयोग हुआ है और उनका विवेचन किया गया है। प्रथम अध्याय में ही गाथा 19-20 में ' श्रामणस्य' शब्द का प्रयोग है हुआ " - 'अप्पम्पि चे संहितं भासमानो, धम्मस्य होति अनुधम्मचारी । रागञ्च दोसञ्च पहाय मोहं, सम्मप्प जानों सुविमुत्त चित्तो । अनुपादियानों इधवा दुरं वा, स भगवा सामञ्ञस्स होती ॥' अर्थात् चाहे अल्पमात्र ही संहिता का भाषण करें, किंतु यदि वह धर्म के अनुसार आचरण करने वाला हो, राग, द्वेष, मोह को त्यागकर, अच्छी प्रकार सचेत और अच्छी प्रकार मुक्तचित्त हो, यहाँ और वहाँ बटोरने वाला न हो तो वह श्रमणपन का भागी होता है। 7वें अध्याय में " अर्हन्तवग्गो" शब्द आया है, जिसमें कहा गया है, कि जहाँ अर्हंत व वीतराग रमण करते हैं, वहीं रमणीय भूमि है ।' इसके अतिरिक्त अनेक स्थानों पर " श्रमणो" शब्द का विवेचन हुआ है " 'अलङ्कृतो चेपि समं चरेय्य, सन्तो दन्तो नियतो ब्रह्मचारी । सब्बे भूते निधाय दण्डं, सो ब्रह्मणो सो समणो सभिक्खू ॥" अर्थात् अलंकृत रहते भी शान्त, दान्त, नियम तत्पर, ब्रह्मचारी सारे प्राणियों के प्रति दंडत्यागी है, तो वही ब्राह्मण है, वही श्रमण है, वही भिक्षु है । आगे अध्याय चौदह व उन्नीस में भी श्रमण की विशेषताएँ बतायी गई हैं। अध्याय 19 में जैन तत्त्वमीमांसा में विवेचित एक तत्त्व आस्रव का उल्लेख किया गया है। अध्याय 26 में “ अरहंत" शब्द प्रयुक्त हुआ है। आगे प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव (उसभं ) शब्द का भी उल्लेख आया है। " बौद्ध साहित्य में त्रिपिटक में बुद्ध और उनके अनुयायियों के विरोधी के रूप में 'निगंठ' शब्द का बारम्बार प्रयोग हुआ है। जैन श्रमण को निग्रंथ कहा जाता है । 'निगंठ' शब्द निर्ग्रथ के ही पर्याय रूप में प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार बौद्ध साहित्य से ही स्पष्ट होता है, कि जैन दर्शन बौद्ध दर्शन का महान् प्रतिद्वन्द्वी था, न कि उससे निकली शाखामात्र । इसके विपरीत प्राचीन जैन सूत्रों में बौद्धों का किंचित भी विवेचन नहीं मिलता। तात्पर्य है, कि निर्ग्रथ बौद्ध सम्प्रदाय की उपेक्षा तक कर सकते थे अथवा संभव है, कि निर्ग्रथ संप्रदाय बौद्ध संप्रदाय के पहले से विद्यमान रहा हो । बुद्ध के
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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