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________________ 136* जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन वर्ण है। वह रत्नत्रय के सद्भाव के कारण सर्वोत्कृष्ट धर्माधिकारी है। ब्राह्मण आदि वर्ण वाले व्यक्ति सम्यग्दर्शन धारण कर क्षत्रिय धर्म में दीक्षित हो सकते हैं । रत्नत्रयधारी मुनिराज भी क्षत्रिय माने जा सकते हैं। वैश्य : कृषि, व्यापार तथा पशुपालन आदि के द्वारा अपनी आजीविका चलाने वाले वैश्य कहलाते हैं। समाज का यह अंग सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। किसी भी राज्य या समाज का आर्थिक आधार यही जाति है। यह जाति समाज की रीढ़ है। क्योंकि किसी भी समाज का विकास उसकी औद्योगिक उन्नति एवं आर्थिक विकास पर ही निर्भर करता है। शूद्र : जो सेवा-शुश्रुषा करते थे, वे शूद्र कहलाये। आदिपुराण में आचार्य जिनसेन ने दो प्रकार के शूद्र बताये हैं - कारु और अकारु। धोबी आदि शूद्र कारू कहलाते थे और उनसे भिन्न अकारु । कारु शूद्र भी स्पृश्य और अस्पृश्य के भेद से दो प्रकार के हैं। इनमें जो समाज से बाहर रहते हैं, उन्हें अस्पृश्य कहते हैं और समाज के अन्दर रहते हैं, वे स्पृश्य कहलाते हैं, जैसे नाई, सुवर्णकार आदि। आदिपुराण के अनुसार इस जाति या वर्ण व्यवस्था के द्वारा निम्नलिखित कार्यों को सम्पादित किया गया है - 1. धार्मिक भावनाओं की सुरक्षा : जाति या वर्ण व्यवस्था के कारण धार्मिक चेतना वर्ग विशेष में केन्द्रित रहती है। 2. संस्कृति की रक्षा : वर्ग विशेष में कला, शिल्प एवं अन्य सांस्कृतिक उपकरणों का विकास सरलतापूर्वक होता है। 3. सामाजिक सुदृढ़ता : सीमित वर्ग में अधिक संगठन पाया जाता है। 4. समाज के विकास और संरक्षण में सहायता : जाति व्यवस्था द्वारा सामाजिक संरक्षण होता है। 5. राजनैतिक स्थिरता : आजीविका पर आधारित जाति व्यवस्था राजनीति को स्थिरता प्रदान करती है, समूह विशेष की संगठनात्मक प्रवृत्ति राज्य व्यवस्था में सहायक होती है। राज्य संगठन इसी प्रवृत्ति से सबल होते हैं तथा सम्प्रभुता प्राप्त शक्ति के विकास का आधार भी जाति व्यवस्था ही है। यद्यपि प्रारम्भ में ऋषभदेव भगवान के समय जाति व्यवस्था आजीविका के आधार पर व्यवस्थित थी, किन्तु कालान्तर में इसने जन्मना वर्णव्यवस्था का अर्थात् पैतृक रूप गृहण कर लिया। इस जाति व्यवस्था में भौगोलिक, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक और आर्थिक कारणों की अन्तक्रियाएँ प्रतिफलित होती है। स्टेलर ने अपनी पुस्तक 'ड्रेविडियन इन इण्डियन कल्चर' में लिखा है, कि “जाति व्यवस्था दक्षिण भारत में अधिक शक्तिशाली है।'' इससे स्पष्ट है, कि आर्यों के आने के पूर्व
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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