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________________ [ २ ] (दि० मा० शुभ चन्द्र कृत ज्ञानार्णव अ० ८ श्लो० १२.१३) १६-कौपीनेपि समूर्च्छत्वा नाह त्यार्यो महाव्रतम् ॥ अपि भाक्त ममूर्च्छत्वात् साटकेऽप्यार्यिकार्हति ॥३६॥ मूर्छा होने के कारण लंगोटी वाला श्रावक भी उपचरित महावत के योग्य नहीं है, मगर “मूर्छा नहीं होने के कारण" बस्त्र वाली श्रमणी भी उपचरित महाव्रत के योग्य है । माने वस्त्र वाले को महावत है मूर्छा वाले को नहीं है। यदौत्सर्गिक मन्यद्वा, लिंगमुक्तं जिनैः स्त्रियाः पुंवत्त दिष्यते मृत्यु काले स्वल्प कृतोपधेः ॥ ३८ ॥ देह एव भवो जन्तो-र्यल्लिंगं च तदाश्रितम् ॥ जातिवत्तद् ग्रहं तत्र, त्यक्त्वा स्वात्म ग्रहं वशेत् ॥ ३६ ।। शय्योपध्या-लोचना-न-वैयावृत्येषु पंचधा ॥ शुद्धिः स्यात् दृष्टि-धी-वृत्त विनयावश्यकेषु वा ॥ ४२ ॥ खोपाटीकांश-स्यादसौशुद्धिः । कतिधा ? पंचधा । केषु ? शय्यादिषु विषयेषु। तत्र, शय्या वसति,संस्तरी, उपाधिः-संयम साधनम् । “वृत्ते-चारित्रे - निरति चार प्रवृत्तिः ॥ ४२ ॥ बाह्यो ग्रन्थों गमक्षाणा-मान्तरो विषयषिता ॥ निर्मोहस्तत्र निर्गन्थः पान्थः शिवपुरे यतः ॥८६॥ माने शरीर इन्द्रिय वगैरह बाह्य ग्रन्थ है विषयच्छा आंतर ग्रन्थ है, उनमें "ममता" न रक्खो । ॐ * निर्गन्थो को त्याज्य बाह्य ग्रन्थ और अभ्यं तर ग्रन्थ का स्वरूप इस प्रकार है सो विय गंथो दुविहो, बझो अभिंतरो अ बोधब्यो। ' भंतो भ चोइस विहो, दसहा पुण बाहिरो गंथो ॥ ८२३ ॥ -
SR No.022844
Book TitleShwetambar Digambar Part 01 And 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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