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________________ दान था ऐसा स्पष्ट एकरार करते हैं । देखिये. पाठ-रेवती श्राविकया श्रीवीरस्य औषधदानं दत्तम् । तेनौषधिदानफलेन तीर्थकरनामकर्मोपार्जितमत एव औषधिदानमपि दातव्यम् । (वि० सम्क्यत्व कौमुदी, पृ०६५) जो परम जैनी है द्वादशव्रतधारिणी है मरकर देवलोक में जाती है और दानसे ही तीर्थकर नाम कर्म का उपार्जन करती है, वह रेवती मांसाहार करे या उस तीर्थकर नाम कर्म के कारणभूत दान में मांस का दान करे, यह तो पागल सी ही कल्पना है। (३) जीस रोग के लीये उक्त औषध लाया गया, वह रोग था 'पित्तज्ज्वर परिगय सरीरे दाह वक्कंतिए' माने-पित्तज्वर और दाहका । जिसमें अरुचि ज्वलन और खूनके दस्त होते रहते हैं। उसको शांत करने के लीये कोला बीजौरा वगेरह तरी देने वाले फल, उनका मुरबा, पेंठा, कवेला, पारावतफल, चतुष्पत्री भाजी, खटाईवाली भाजी, वगरह प्रशस्य माने जाते हैं, और उस रोगमें मांस की सख्त परहेज की जाती हैं। वैद्यग्रन्थो में साफ २ 'उल्लेख है कि स्निग्धं उष्णं गुरु रक्तपित्तजनकं वातहरं च । मांस उष्ण है भारी है रक्तपित्त को बढानेवाला है अतः इस रोग में वह सर्वथा त्याज्य है । .. इस रोग में कोला अच्छा है और बीजौरा भी अच्छा है ( कयदेवनिघंटु, सुश्रुत संहिता) जब तो निश्चित है कि वह औषध मांस नहीं था किन्तु तरी देनेवाला कोई फल और उसका मुरब्बा था। इन सब बातों को मद्दे नजर रखते हुए उन शब्दो का अर्थ करना चाहिये। दिगम्बर-उक्त विषय का मूलपाठ इस प्रकार है पाठ-तत्थणं रेवतीए गाहावइणीए मम अह्राए दुवे कवोयसरीरा उवक्खड़िया तेहिं नो अहो ।
SR No.022844
Book TitleShwetambar Digambar Part 01 And 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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