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________________ ४६ माने-एकेन्द्रियको द्रव्य या भाव में से कोई भी मन नहीं है, अतः वो असही माना जाता है, तीर्थकर भगवान् मन: जरिए संशी हैं। (बृहद् द्रव्यसंग्रह, जै० द. व. पृ० २०५ से २०८) .. (१०) मनोबलप्राणः पर्याप्तसंज्ञिपंचेन्द्रियेष्वेव संभवति, तन्निबन्धन-वीर्यान्तराय-नोइन्द्रियावरणक्षयोपशमस्यान्यत्राऽभावात् । (आ० माधवचन्द्र त्रैवेद्यदेवकृता जीवकांड बडी टीका पृ० ३४५) माने-पर्याप्त संशी पंचेन्द्रिय में मनप्राण होता है अतः केवली भगवानं में भी मन है । .(११) कायवाक्यमनसा प्रवृत्तयो । नाभंवस्तव मुनेश्चिकिषया७४।। केवली तीर्थकर भगवान् मन की प्रवृत्ति करते हैं (स्वामी समन्तभद्रकृत बृहत्स्वयंभूस्तोत्रम् ) (१२) सण्णीण दस पाणा ॥१५१॥ टीका-संज्ञिना पर्याप्तस्य पुनः सर्वेपि प्राणा भवन्ति । (मूलाचार परि० १२ पर्याप्त्यधिकार) केवली संशीषर्याप्ता हैं उन्हें दश प्राण हैं। (१३) न विद्यते योगो मनवचःकायपरिस्पंदो द्रव्यभावरूपो येषां तेऽयोगिनः। माने--केवली भगवान् को मन वाणी और देह की क्रिया है, अयोगी केवलीको नहीं है। (मूलाचार प. १२ गा. १५५ टीका पृ० २७५) दिगम्बर-केवली भगवान् मुक्त होते हैं तब सिद्ध बनते हैं। यहाँ श्वेताम्बर मानते हैं, कि-सिद्ध दशा में उनके चरम शरीर से त्रिभागोन २/३ अवगाहना रहती है। परन्तु दिगम्बर विद्वान इसका इन्कार करते हैं। जैसाकि-७० शीतलप्रसादजी लिखते हैं कि
SR No.022844
Book TitleShwetambar Digambar Part 01 And 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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