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________________ द्वितीय अध्याय : १३ प्राकृतिक पदार्थ आते हैं। इस प्रकार वन सम्पदा, खनिज सम्पदा और जलसम्पदा की गणना भी भूमि के अन्तर्गत को जाती है। वन सम्पदा प्राचीन भारत के आर्थिक जीवन में वनों का महत्त्वपूर्ण स्थान था वन विभिन्न प्रकार के लता, गुल्म और औषधियों से परिपूर्ण थे । जैनसाहित्य में बड़े-बड़े वनों का उल्लेख आता है। उत्तराध्ययनचूणि से ज्ञात होता है कि राजगृह के बाहर १८ योजन की अटवी थी। औपपातिकसूत्र से ज्ञात होता है कि चम्पा नगरी के वनों में तिलक, बकुल, लकुच, छत्रोप, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लौधधन, चन्दन, नीम, कुड़च, कदम्ब, पनस, दाडिम, शाल, तमाल, प्रिय, प्रियंगु, परोपग आदि वृक्षों की सघन पंक्तियाँ थीं जो सभी ऋतुओं के फलों और पुष्पों से लदी रहती थीं। वनों में तोता, मोर, मैना, कोयल, भंगारक, कोण्डलवा, चकोर, नंदीमुख, तीतर, बटेर, बत्तक, चक्रवाक, कलहंस, सारस, आदि और बकरे, खरगोश, मेष, रीछ, सांभर, सूअर, चीता, शेर, हाथी, चमरी गाय आदि जानवर पाये जाते थे। बहत्कल्पभाष्य से ज्ञात होता है कि लकड़हारों, घसियारों, पत्तहारकों, शिकारियों और जंगली जातियों की जीविका वनों से ही चलती थी। चर्म, कस्तूरी, चंवर और हाथीदाँत जिनका नगरों में बहुविध प्रचार था, वन्य पशुओं से प्राप्त होते थे । वनों पर विविध उद्योग आधारित थे। जिनमें काष्ठ, चर्म, हाथीदाँत, लाख आदि पर आधा१. मार्शल एलफर्ड, प्रिन्सिपल्स आफ इकोनामिक्स, खण्ड ४, पृ० ११५. २. भगवती सूत्र, १/१/३३ : प्रज्ञापना १/४० : औपपातिकसूत्र ३. ३. उत्तराध्ययनणि, ८/२५८ ४. 'सेणं असोगवरपायवे अण्णेहिं बहूहि तिलएहिं, लउएहित्तोवेहिं, सिरीसेहि, सत्तवण्णेहि, दहिवणेहि, लोद्धेहि, धहिं, चंदणेहि, अज्जुणेहिं, णीहि, कुडएहिं, कलंहिं, सव्वेहि, फणसेहि, दाडिमेहिं, सालेहि, ताहि, तमालेहिं, पियएहिं, पियंगूहि, पुरोवहि, रायरु खेहि, नंदीरुवखेहि सव्वओ समेता संपरिक्खत्तें औपपातिकसूत्र, ६. ५. प्रश्नव्याकरण १/९. ६. विपाक ४/६ : प्रश्नव्याकरण १/६. ७. बृहत्कल्पभाष्य, २/१०९७. ८. प्रश्नव्याकरण ४/५ : दन्त हस्त्यादीनां, 'चम्पा' वग्धादीण ‘वाला' चमरोणं, निशीचूणि भाग २, गा० १०३२.
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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