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________________ १० : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन इससे फलित होता है कि सामाजिक जीवन में धन के महत्त्व को जैनों ने स्वीकार कर लिया था। कौटिल्य का अभिमत है कि धर्म और काम अर्थ पर निर्भर हैं। सोमदेव के काल तक भी यही मान्यता प्रचलित थी। उन्होंने धर्म, अर्थ और काम में अर्थ का महत्त्व बताते हये कहा है कि अर्थ के बिना धर्म और काम संभव नहीं है इसलिये अर्थोपार्जन करना ही श्रेष्ठ है। सोमदेव के अनुसार जो मनुष्य काम और अर्थ की उपेक्षा करके केवल धर्म को ही सतत् उपासना करता है वह पके हुये खेत को छोड़कर जंगल को ही काटता है। सुखी और संतुलित जीवन के लिये ऐसी अपेक्षा की जाती थी कि मनुष्य धार्मिकता के साथ धन का संग्रह और व्यय करे और अपने पारलौकिक सुख की क्षति न करता हुआ लौकिक सुख को न्यायपूर्वक भोगे।" सोमदेवसूरि के अनुसार अर्थ से सब प्रयोजन सिद्ध होते हैं" अर्थात् जीवन को सब आवश्यकताओं की पूर्ति अर्थ से ही हो सकती है । इसलिये जो व्यक्ति अप्राप्त धन की प्राप्ति, प्राप्त धन को रक्षा और रक्षित धन की वृद्धि करता है वह धनाढ्य होता है । ६ जैन और हिन्दू दोनों ही परंपराओं में अर्थ का बड़ा महत्त्व था। रामायण में अर्थ को धर्म का मूल बताते हुये कहा गया है कि जैसे पर्वत से नदियाँ निकलती हैं वैसे ही अर्थ से सब कियायें होती हैं। वाल्मीकि के अनुसार जिसके पास संपत्ति है, उसी के बन्धु हैं, वही पण्डित, पराक्रमी और गुणी कहलाता है। महाभारत के शान्तिपर्व में कहा गया है कि बिना अर्थसिद्धि के अर्थ और काम अपूर्ण है, सब क्रियायें धन से ही होती हैं धन से ही धन आता है। जिस मनुष्य के पास धन है, उसी के मित्र १. 'अर्थमूलौ हि धर्मकामौ'-कौटिलीय अर्थशास्त्र १/७/३. २. 'कालासहत्वे पुनरर्थ एव धर्मकामयोरर्थमूलत्वात्'–सोमदेवसूरि, नीति वाक्यामृत, २/१६,१७ । ३. 'य कामार्थावुपहत्य धर्ममेवोपास्ते सः पक्वक्षेत्रं परित्यज्यारण्यं कर्षति',वही १/४७ ४. वही, १/४८. ५. 'यतः सर्वप्रयोजनसिद्धिः सोर्थः', वही २/१. ६. 'अलब्धलाभो लब्ध परिरक्षणं रक्षित परिवर्धनम् चार्थानुबन्ध', वही, २/३. ७. वाल्मीकि रामायण, ६/८३/२१. ८. वही, ६/८३/३९. ९. महाभारत, शान्तिपर्व । १२/८/२४.
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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