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________________ १७८ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन लिये भोजन कराता और न ही स्वयं वेष्टि करता । करमुत्ति - कभी-कभी राजा अस्थायी या स्थायी रूप से अपनी प्रजा को करमुक्त कर देते थे । राजा सिद्धार्थ ने महावीर के जन्मोत्सव के अवसर पर दस दिनों के लिए कुण्डग्राम को भूमिकर, चुंगीकर, दण्ड और बेगर से मुक्त कर दिया था। राजा श्रेणिक द्वारा भी मेघकुमार के जन्म पर राजगिरि को दस दिनों के लिये सभी करों से मुक्त कर देने का उल्लेख है । प्रायः राजा व्यापारियों से प्रसन्न होकर, उनसे वाणिज्यशुल्क नहीं लेते थे । ज्ञाताधर्मकथांग में वर्णित है कि हस्तिशीर्ष नगर के पोतवणिकों से कलियद्वीप में पाये जाने वाले सुन्दर घोड़ों की सूचना प्राप्त होने पर प्रसन्न होकर राजा कनककेतु ने उन्हें व्यापार की अनुमति दी और साथ ही उन्हें करों से भी मुक्त कर दिया । अशोक ने बुद्ध के जन्मस्थान लुम्बिनी ग्राम के भूमि-कर को घटा कर 1 से 2 कर दिया था । " महाराज हस्तिन के खोह ताम्रपत्र अभिलेख से ज्ञात होता है कि राजा ने अग्रहार, उद्रंग तथा उपरिकर के साथ ब्राह्मणों को भूमि दान दिया था । मनु ने निर्धन, भिक्षुक, निर्बल, वृद्ध, साधु आदि से कर लेने का निषेध किया है । करापवंचन - प्राचीनकाल में भी करों तथा शुल्कों से बचने के लिये कुछ लोग अपनी आय छिपाने का प्रयत्न करते थे । राजप्रश्नीय से सूचना मिलती है कि अंकरत्न, शंखरत्न और दंतरत्न के व्यापारी राजकीय शुल्क से बचने के लिये राजमार्गों से यात्रा नहीं करते थे ।" इसी प्रकार उत्तरा १. राजकृत अनुग्रहवशेन एकद्वित्रयादिवर्ष मर्यादया न च हिरण्यादि प्रददाति वेष्टकरोति न अपि भक्तं ददाति, व्यवहारभाष्य, २ / २९ २. उम्मुक्कं उक्करं उक्किट्ठे अदिज्जं अभडप्पवेसं अदंडकोदंडिम, कल्पसूत्र, ९९ ३. ज्ञाताधर्मकथांग १ / ८१ ४. वही, १७/१७ ५. रुक्मिणिदेइ लघु स्तम्भ लेख ४; नारायण, ए० के० : प्राचीन भारतीय अभिलेख संग्रह १, पृ० ६९ ६. वही, भाग २, पृ० १२४ ७. मनुस्मृति, ८ / ३९४ ८. अंकवणियाइवा संखवणियाइवा यंतवणियाइवा सुकं मसिउकामाणो सम्भ पंथ प्रच्छसि राजप्रश्नीयसूत्र ४८
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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