SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६८ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन कहा गया है। जैनग्रंथों में नगर को परिभाषित करते हुये कहा गया है कि जहाँ पर कर नहीं लगते वह नगर है । पर अन्य संदर्भो से नगरों के कर-मक्त होने की पुष्टि नहीं होती है, क्योंकि नगरों से वाणिज्य-व्यापार सम्बन्धी कर लिये जाने का उल्लेख है। कौटिलीय अर्थशास्त्र और स्मृतियों में कई प्रकार के करों का उल्लेख है। इस कारण जैन ग्रंथों का यह कथन कि नगर ऐसे स्थान हैं जहाँ कर न लगते हों, भिन्न प्रसंग में रहा होगा। उनका तात्पर्य उन १८ कृषि सम्बन्धी करों से रहा होगा जिनका प्रचलन नगरों में नहीं था । कौटिलीय अर्थशास्त्र में दुर्ग, राष्ट्र, खनिज, सेतु, वन, वणिक्पथ, शुल्क और दण्ड राजकीय आय के साधन कहे गये हैं।५ शुक्र ने शुल्क, दण्ड, खानकर, मातृक-उपायन को राजा की आय का साधन बताया है। जैन ग्रन्थों में राजकीय आय का विस्तृत उल्लेख तो नहीं मिलता है, पर बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य, निशोथचूर्णि आदि ग्रन्थों में प्राप्त उल्लेखों से ज्ञात होता है कि भूमिकर, वाणिज्यशुल्क, वाणिज्यपथ, दण्ड, उपहार और विजित राजाओं से प्राप्त धन राजकीय आय के साधन थे । भूमिकर-आय का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत भूमिकर था, जो भूमि की उर्वरता पर निर्भर करता था। बृहत्कल्पभाष्य में उल्लेख है कि इक्ष्वाकुवंश के राजा १/१० और वृष्णि वंश के राजा १/६ भाग कर ग्रहण करते थे। व्यवहारभाष्य में भी उपज का १/४, १/६, १/१० राजवंश कहा गया है। कौटिल्य ने उपज का १/४ राज्यकर कहा है । १. कौटिलीय अर्थशास्त्र; २/५/३३. २. 'नत्थेत्थ करो नगर' बृहत्कल्पभाष्य, भाग २, गाथा १०८९; उत्तराध्ययनचूणि २/१०७; निशीथचूणि ३/४१२८. ३. उत्तराध्ययन १४/३७; पिंडनियुक्ति गाथा ८७; निशीथचूणि भाग ४, गाथा ६५२१. ४. कौटिलीय अर्थशास्त्र, २/६/२४; शुक्रनीति २/२३५. ५. 'समाहर्ता दुर्ग राष्ट्र खनि सेतु वनं व्रजं वणिक्पथं चाबेक्षेत, शुल्क दण्डः पौतवं नागरिको' कौटिलीय अर्थशास्त्र, २/६/२४. ६. शुक्रनीति, २/२३५. ७. इक्खागादसभागं, सव्वे वि य वण्हिणो उ छब्भागं-बृहत्कल्पभाष्य ५/५२५७. ८. व्यवहारभाष्य, १/१४. ९. 'धान्यानामष्टमो भाग : षष्ठो द्वादश एव वा' ॥ मनुस्मृति ७/१३०.
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy