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________________ १५४ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन सार्थ का उल्लेख है, जो आजीविका की खोज में घूमता रहता था।' इससे स्पष्ट होता है कि समाज में निम्नस्तरीय वर्ग आर्थिक दृष्टि से दुर्बल था। उनके पास काम करने के न तो पर्याप्त साधन थे और न ही उन्हें पूर्ण भोजन मिलता था। उन्हें अपनी आजीविका के लिये कड़ा परिश्रम करना पड़ता था। वे सूर्योदय होते ही जंगलों में लकड़ी और पत्ते इकट्ठे करने चले जाते और सूर्यास्त तक घर लौट पाते थे। कुछ हीन कार्य करने वालों की दशा तो दासों से भी बुरी थी, समाज में सवर्णों के लिये वे अस्पृश्य थे। इस श्रेणी में चांडाल आते थे, इन्हें नगरों के बाहर निवास करना पड़ता था।" श्रमशक्ति प्रदान करने वाले कर्मकारों का स्तर दासों की अपेक्षा अच्छा था उन्हें अपने काम के अनुसार निश्चित वेतन प्राप्त होता था, वे स्वामी की सम्पत्ति नहीं थे। कुशल श्रमिकों की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी थी। वे अपने अधिकारों की सुरक्षा के लिये श्रेणियों में संगठित हो गये थे, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में ऐसी १८ श्रेणियों का वर्णन है। इन श्रेणियों के अपने नियम थे और ये आवश्यकतानुसार राज्य से न्याय की माँग करती थीं। इन श्रेणियों की तुलना आज के श्रमिक संगठनों और "ट्रेड यूनियन्स" से की जा सकती है। ___ आज की भाँति प्राचीनकाल में भी उत्पादन के लिये सन्तुष्ट श्रमशक्ति आवश्यक समझी जाती थी। प्रश्नव्याकरण तथा उपासकदशांग से ज्ञात होता है कि श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिये एवं उनके नैतिक उत्थान के लिये उनकी व्यक्तिगत और सामूहिक आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाता था। महावीर ने श्रमिकों के शोषण की भावना को कम करने के लिये आश्रितों के भोजन-पानी का विच्छेद और उनकी क्षमता से अधिक कार्य लेना, श्रावक के प्रथम अणुव्रत १. बृहत्कल्पभाष्य, भाग ३, गाथा ३०६६ २. प्रश्नव्याकरण ३/२० ३. बृहत्कल्पभाष्य भाग २, गाथा १०९७ ४. व्यवहारभाष्य भाग ४, गाथा ९२ ५. वही भाग ४, गाथा ९२ ६. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ३/१० ७. ज्ञाताधमंकथांग ८/१३०; आवश्यकचूणि भाग २, पृ० १८१ ८. उपासकदशांग १/३२; प्रश्नव्याकरण १/२७
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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