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________________ षष्ठ अध्याय : १५३ को मंत्रीपद से च्युत कर दिया और उसका सारा धन छीन कर दंडित किया। कौटिल्य ने भी श्रमिकों की भृत्ति काटकर बचत करने वाले राज्याधिकारी के लिये दण्ड का विधान किया है। खेतिहर श्रमिकों को प्रदत्त भृत्ति-दर का जैन ग्रन्थों में कोई वर्णन नहीं मिलता, किन्तु अन्य प्राचीन ग्रन्थों से इस तथ्य पर प्रकाश पड़ता है। कौटिलीय अर्थशास्त्र के असुसार राज्य की खेती में खेतिहर श्रमिक, भूमि की उर्वरता के अनुसार उपज का १/२, १/३, १/४, १/५ भाग भृत्ति-स्वरूप पाते थे । निजी खेतों में काम करने वाले श्रमिक, उपज का १/१० भृत्ति-स्वरूप पाते थे। यूनानी विद्वान् स्टूबो लिखता है कि खेतिहर श्रमिक राज्य की भूमि पर काम करके उपज का १/४ भाग भृत्ति स्वरूप पाते थे।" निर्धारित वेतन के अतिरिक्त श्रमिकों को उनकी विशेष सेवा के लिये पुरस्कार दिये जाते थे और उनको पदोन्नत किया जाता था। निशीथचूर्णि में ऐसे राजा का वर्णन है जिसने अपने कर्मचारी की सेवा से प्रसन्न होकर उसके वेतन में प्रतिदिन एक स्वर्णमाषक की वृद्धि कर दी थी और वस्त्र दान दिया था। निशीथचूर्णि तथा आवश्यकचूर्णि के अनुसार किसी राजा द्वारा अपने पाँच योद्धाओं के अत्यन्त वीरतापूर्वक युद्ध करके एक अजेय दुर्ग को जीत लेने पर प्रसन्न होकर यह घोषणा की गई कि वे योद्धा नगर से जो चाहे ले लें उसका मूल्य राज्य वहन करेगा। कुछ श्रमिक जिनका सेवाकार्य अस्थायी होता था वे कार्य की खोज में इधर-उधर घूमते रहते थे । बृहत्कल्पभाष्य में "औदारिक' श्रमिकों के १. व्यवहारभाष्य ८/३१० २. कौटिलीय अर्थशास्त्र २/९/२५ ३. वही ३/१३/६९, २/२४/४१ ४. वही ३/१३/६९ ५. पुरी, बैजनाथ-इण्डिया एज डिस्क्राइब्ड बाई अर्ली ग्रीक राइटर्स ६. कौटिलीय अर्थशास्त्र २/२३/४० ७. 'पति दिवसं सुवण्णमासतो वित्ति कता पहाणं च से वत्थजुयलं दिन्नं' निशीथचूणि, भाग ४, गाथा ६५४१ ८. वत्थादिगं वा जणस्स गेण्हति तस्स वेणइयं सव्वं राया पयच्छति जं ते किंचि असणादिगं' निशीथचूर्णि, भाग ४, गाथा ६०८०; आवश्यकचूर्णि भाग २, पृ० २१८
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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