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________________ पंचम अध्याय : १३७ जैन ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर हिरण्य और सुवर्ण के उल्लेख आये हैं। इससे प्रतीत होता है हिरण्य और सुवर्ण उस युग के प्रचलित सिक्के थे। ज्ञाताधर्मकथांग में वर्णन है कि राजा श्रेणिक ने अपनी पुत्रवधुओं को आठ करोड़ 'हिरण्य' और आठ करोड़ 'सुवर्ण' प्रदान किये थे, लेकिन डॉ० भण्डारकर ने हिरण्य को सिक्का नहीं स्वीकार किया है। उनके अनुसार 'स्वर्णपिण्ड' को 'हिरण्य' कहा जाता था और चिह्नित स्वर्ण सिक्कों को भी 'सुवर्ण' कहा जाता था। सिक्कों को निर्माण-विधि सिक्कों के निर्माण की दो विधियों के अस्तित्व पर प्रकाश पड़ता है। प्रथम ढालकर निर्मित और द्वितीय ठप्पे की विधि से निर्मित सिक्के । ढाले सिक्के के निर्माण में धातुओं को पिघलाकर साँचे में डालकर सिक्के बनाये जाते थे। साँचों पर पशु, पक्षी, मनुष्य, वृक्ष, धार्मिक प्रतीक, नदी, पर्वत, हाथी आदि बने रहते थे। साँचे तैयार करके भट्ठी में रख दिये जाते थे, जब वे पककर तैयार हो जाते थे तो उनके मध्य बिन्दू से धातू डाली जाती थी और पिघली धातु उचित स्थान पर पहुँचकर विशिष्ट आकार में फैल जाती थी और साँचे पर अंकित चिह्न तथा लेख धातु पर अंकित हो जाते थे। इससे भिन्न ठप्पे की विधि से तैयार किये जाने वाले सिक्कों के लिए किसी धातुपिण्ड के सममाप के टुकड़े काटकर उन्हें तप्त कर, ठप्पे से दबाकर चिह्नित और लेखयुक्त कर बनाया जाता था। इन्हें 'पंचमार्क', 'आहत' या चिह्नित सिक्के कहा जाता है। भारत के उत्तर पश्चिमी भाग और गंगा की घाटी में ये सिक्के प्रचलित थे । तक्षशिला की खुदाई में इस प्रकार के सिक्के मिले हैं। जैनग्रन्थ आवश्यकणि के अनुसार वे ही सिक्के शुद्ध और प्रामाणिक माने जाते थे जिन पर उनकी शुद्धता की परीक्षा करके चिह्न अंकित कर दिये जाते थे। पिडनियुक्ति से पता चलता है कि ये सोने, चाँदी और ताँबे के बनाए जाते थे। १. 'अट्ठ हिरण्णकोडीओ अट्ठसुवण्ण कोडोओ पीइयाणं दलयंहि ज्ञाताधर्मकथांग १/९१ २. वसुदेव उपाध्याय-प्राचीन भारतीय मुद्रायें, पृ० १० । ३. वही, पृ० १५ ४. वही, पृ० १४,१६ ५. जत्थ रुपकं जत्थ सुद्धंटकं समक्खरं सो छेको भवति आवश्यकचूणि भाग २, पृ० २७ ६. पिंडनियुक्ति, गाथा ४०५
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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