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________________ - १२६ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन था और ऊँची-नीची भूमि को समतल किया था ।" आवश्यकचूर्णि के अनुसार यात्रियों की सुविधा के लिये मार्गों के गुण-दोष की सूचना शिला अथवा वृक्षों पर दे दी जाती थी । इसी प्रकार मरुस्थल जैसे शुष्क प्रदेशों में दिशा और दूरी के संकेत के लिये भूमि में कीलें गाड़ दी जाती थीं । यूनानी यात्री मेगस्थनीज ने भी इस तथ्य की पुष्टि करते हुये कहा कि भारतीय राजमार्ग-निर्माण में अत्यन्त कुशल थे । सड़कों पर स्तम्भ या पत्थर स्थापित कर उन पर उपमार्गों और दूरी का संकेत किया जाता था । ३ जैन साक्ष्यों के विवरणों से स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारत में समीपस्थ स्थानों के आवागमन के लिये तो पर्याप्त सुविधा थी, किन्तु दूरस्थ स्थानों को जाने वाले मार्ग सुरक्षित नहीं थे । देश का अधिकांश भाग वन- प्रदेश था जिनके मध्य होकर सड़कें जाती थीं । ये कच्ची और धूलधूसरित होती थीं जिन पर चलना अत्यन्त कठिन था । वर्षाकाल में मार्ग कीचड़ युक्त हो जाते थे जिससे पथिक और पशु भी फिसल कर गिर पड़ते थे ।" वर्षाऋतु में नदियों में बाढ़ के कारण भी मार्ग अवरुद्ध हो जाते थे । कभी-कभी जंगली हाथियों और चोरों द्वारा भी मार्ग अवरुद्ध करने के उदाहरण उपलब्ध हैं । प्रायः नदी-नालों पर पुल नहीं होते थे, नदी पार करने का एकमात्र साधन नौकायें थीं। यात्रियों को इन नावों प्रायः लोग एक स्थान से 1 और घाटों के लिये किराया देना पड़ता था । १. छदन्त जातक — आनन्द कौसल्यायन, जातककथा ५/१३५ २. आवश्यकचूर्णि भाग १, पृ० ५११ " ३. मोतीचन्द्र सार्थवाह, पृ० ७८ ४. संधदासगण - वसुदेवहिण्डी, भाग १, पृ० ४२ ५. "अइक्ते वासाकाले वासं नोवरमइ, पंथो वा दुग्गमो अइजलेण सचिक्खल्लो , एवमाइएहि कारणेहि चउपाडिवए अइक्कंते णिग्गमणं ण भवति" निशीथचूर्णि भाग ३, गाथा ३१६० ६. " महानदी पूरेण आगता, अग्गतो त्रा चोरभयं दुट्ठहत्थिणा वा पंथो रुद्धो” वही भाग ४, गाथा ५६६५ ७. बृहत्कल्पभाष्य, भाग १, गाथा २६० ८. “ तरपणे च मग्गेज्जा" निशीथचूर्णि भाग ३, गाथा ४२२०
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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