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________________ ११२ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन था । सार्थवाह की आज्ञा का सबको पालन करना पड़ता था । किसीकिसी सार्थ में दो सार्थवाह होते थे, ऐसी स्थिति में यात्रियों को दोनों की आज्ञा का पालन करना पड़ता था । कभी-कभी मार्ग की दुष्करता कारण एक दूसरे की सहायता के उद्देश्य से दो सार्थवाह मिलकर साथ में चलते थे । सार्थं के साथ यात्रा करने वाले यात्रियों को सार्थवाह को धन देना पड़ता था । निशोथचूर्ण से ज्ञात होता है कि सार्थवाह सार्थ के साथ यात्रा करने वाले साधुओं से भी धन की माँग करते थे । जैन ग्रन्थों में पाँच प्रकार के साथ बताये गये हैं भण्डी - इसमें माल ढोने के लिये शकट आदि यान होते थे । बहलिकाइसमें भारवाही पशु ऊँट, खच्चर, बैल आदि वाहन होते थे । भारवहइसमें यात्री अपना भार स्वयं ढोते थे, औदारिका - इसमें श्रमिकों का सार्थ होता था जो अपनी आजीविका के लिये घूमते रहते थे और कार्पाटिकाइसमें भिक्षुओं और साधुओं का सार्थं होता था । निशीथ चूर्णि से यह भी ज्ञात होता है कि सुदूर प्रदेशों में यात्रा करने वाले सार्थों में भारवाहक श्रमिकों के अतिरिक्त बैल, ऊँट, घोड़े आदि पशु तथा गाड़ी और रथ भी होते थे ।" ऐसे सार्थों में बालक, वृद्ध, दुर्बल, रोगी आदि को भी सवारो मिल जाती थी । बृहत्कल्पभाष्य में उल्लेख है कि १. 'सत्थं वाहेति सो सत्यवाही' निशीथचूर्णि भाग २, गाथा १७८५, भाग २, गाथा २५०२ २. बृहत्कल्पभाष्य, भाग ३, गाथा ३०८६; निशीथचूर्णि भाग ४, गाथा ५६७७ " ३. बृहत्कल्पभाष्य, भाग ३, गाथा ३०८७ ४. मुल्लेण विणा णेच्छति । निशीथचूर्णि भाग ४, गाथा ५६६३ ५. 'रह हत्थि जाग - तुरगे, अणुरंगादी हि एंते कायवहो' निशीथचूर्णिभाष्य गाथा, भाग ३, गाथा ३०१४ ६. बृहत्कल्पभाष्य, भाग ३, गाथा ३०६८ "जइ अम्हं कोइ बालो आदिसदाओ बुड्ढो दुब्बलो गिलाणो वा गंतुं सज्जा सो तुभेहि चडावेयव्वो ।” निशीथचूर्णि भाग ४, गाथा ५६६३
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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