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________________ - ११० : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन महँगे हो जाते थे ।' आवागमन के दुष्कर मार्गों और कठिनाइयों के कारण एक स्थान पर उत्पादित होने वाली वस्त दूसरे स्थान पर मँहगी बेची जाती थी यथा पूर्व देश में निर्मित वस्त्र लाट देश में महंगे बिकते थे ।' व्यापारियों की परस्पर प्रतियोगिता के कारण वस्तुओं का मूल्य प्रभावित होता था और उन्हें वस्तु के मूल्य में कमी करनी पड़ती थी। परन्तु इसकी क्षति-पूर्ति वे मूल्यवान वस्तुओं में कम मूल्य की वस्तु मिलाकर बेचने से कर लेते थे। ग्रन्थों में वस्तुओं में मिलावट करने के भी संकेत हैं । वस्तुओं के मूल्य-निर्धारण पर राज्य-नियन्त्रण के विषय में जैन आगम ग्रन्थों में कोई उल्लेख नहीं प्राप्त होता है । मेगस्थनीज के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन-काल में वस्तुओं के मूल्य पर समुचित नियन्त्रण हेतु एक सरकारी समिति होती थी। इस कारण कोई भी विक्रता निर्धारित मूल्य से अधिक मूल्य नहीं ग्रहण कर सकता था और न ही नई की जगह पुरानी वस्तु बेच सकता था। सोमदेव के अनुसार राज्य को आवश्यक वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करना चाहिये, जिससे व्यापारी मनमाने मूल्य बढ़ाकर प्रजा का शोषण न कर सकें, क्योंकि जहाँ व्यापारी, स्वेच्छा से मूल्य वृद्धि कर देते हैं वहाँ उपभोक्ताओं को बड़ा कष्ट होता है।" सोमदेवसूरि के अनुसार यदि व्यापारी वस्तुओं का मूल्य बढ़ा दें तो राजा का कर्तव्य है कि बढ़े हुए अतिरिक्त मूल्य को व्यापारी से छीन ले और बेचने बाले व्यापारी को केवल उचित मूल्य ही प्रदान करे । ६ वस्तुओं की मूल्य-वृद्धि पर नियन्त्रण हेतु उनके निर्यात पर रोक लगा दी जाती थी। बृहत्कल्पभाष्य में उल्लिखित कथा से ज्ञात होता है कि दन्तपुर के राजा ने अपने राज्य से हाथी-दाँत के निर्यात का निषेध कर दिया था। निशीथचणि से ज्ञात होता है कि मूल्य मुद्राओं में निर्धारित किये जाते थे। मूल्य की दृष्टि से कम्बलों की तीन कोटियाँ होती थीं १. निशीथचूर्णि भाग २, गाथा ९५२ २. वही भाग २, गाथा ९५१ ३. प्रश्नव्याकरण २ ३; उपासकदशांग १/३४; नोतिवाक्यामृतम् ८/१४ ४. पुरी बैजनाथ-इण्डिया एज डिस्क्राइब्ड बाइ अर्लो ग्रीक राइटर्स, पृ० ६२ ५. सोमदेवसूरि-नीतिवाक्यामृतम् ८/१५ ६. स्पर्द्धया मूलवृद्धिर्भाण्डेषु राज्ञो, यथोचितं मूल्यं विक्रेतुः वही ८/१८ • ७. बृहत्कल्पभाष्य, भाग २, गाथा २०४३
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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