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________________ ९८ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन १३–प्रसाधन-उद्योग __ शृङ्गारप्रियता और विलासप्रियता के कारण प्रसाधन-उद्योग उन्नति पर था। राजा, सामन्त आदि समृद्ध वर्ग के लोगों के अतिरिक्त साधारण गृहस्थ भी सुगन्धित वस्तुओं का प्रयोग करते थे। इससे सुन्दरता में अत्यधिक वृद्धि हो जाती थी। चन्दन, तगर, कपूर, अगरु, कुकुम आदि से विविध प्रकार के सुगन्धित तेल, इत्र, विलेपन आदि सौन्दर्यवर्धक प्रसाधन तैयार किये जाते थे ।२ विविध सुगन्धित पदार्थों का लेप बनाया जाता था। लोध वृक्ष की छाल से भी अंगराग तैयार किया जाता था। इसको हाट द्रव्य कहा जाता था। सूत्रकृतांग से ज्ञात होता है कि लाक्षारस से भी स्त्रियों के अंगराग बनाये जाते थे। पावों को आलक्तक के समान लाक्षारस से रंगा जाता था और आँखों के लिये सुरमा निर्मित किया जाता था। स्त्रियों के सदा युवती दिखने के लिये विशेष प्रकार की गुटिका बनाई जाती थी। इसी प्रकार होठों को रंगने के लिए नन्दी चूर्ण बनाये जाते थे और दाँतों में चमक लाने के लिए दंत चूर्ण बनाये जाते थे।" सुगन्धित द्रव्य बाजारों में विक्रय के लिये जाते थे। “गंधियावण" ( गंधापण ) में सब प्रकार के सुगन्धित पदार्थों की बिक्री होती थी। इनका विक्रय करने वाले "गंधी" कहे जाते थे।' १४-रंग-उद्योग __ जैन ग्रन्थों में कषाय, हरिद्र, मंजिष्ठ, रक्त, नील, पीत आदि रंगों का वर्णन आया है। प्राचीनकाल से ही वस्त्रों और चित्रों को रंगने के लिये तरह-तरह के रंगों का निर्माण किया जाता था। ज्ञाताधर्मकथांग से सूचना मिलती है कि तौलिये को केसर से रंगा जाता था। रंग, फल, कंद, मिट्टी और वृक्षों के रस से बनाये जाते थे। कौटिलीय अर्थशास्त्र में भी १. प्रश्नव्याकरण ४।४ २. बृहत्कल्पभाष्य, भाग २ गाथा २५५७ ३. निशोथचूणि भाग ३ गाथा ४३४५, निशीथचूणि, भाग २ पृष्ठ २६ ४. सूत्रकृतांग १।४।२ २८४, २८५, २८६ ५. वही १. निशीथचूणि भाग ३ गाथा ३०४७ ७. ज्ञाताधर्मकथांग ११२४
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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