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________________ चतुर्थ अध्याय : ९१वे काष्ठ-निर्मित स्त्री मूर्तियाँ बड़ी सुन्दर और सजीव बनाते थे । वसुदेवहिण्डी से ज्ञात होता है कि कोक्कास बढ़ई ने यवनदेश के बढ़ई आचार्यों से काष्ठकर्म की शिक्षा ली थी । जातककथा के अनुसार वाराणसी से कुछ दूर पर बढ़इयों के गाँव थे । वे नौका द्वारा जंगल जाकर लकड़ी काटते थे और एकत्र कर नगर में ले आते थे, जहाँ आवश्यकतानुसार गृहनिर्माण की सामग्री बनाकर उनका विक्रय करते थे और कार्षापणों में पारिश्रमिक प्राप्त करते थे । ३ गोशीर्ष चन्दन को लकड़ी अत्यन्त मूल्यवान मानी जाती थी । बढ़ई रथ, यान आदि के निर्माण के लिये तिनिश की लकड़ी का प्रयोग करते थे जो वाहनों के निर्माण के लिये उत्तम मानी जाती थी, इस कार्य के लिये एरंड की लकड़ी उपयुक्त नहीं मानी जाती थी । संभवतः भारी और कमजोर होने के कारण यान - निर्माण में उसका उपयोग नहीं किया: जाता था । " I ५ – वास्तु उद्योग प्राचीनकाल में वास्तु उद्योग भी विकसित था । नगरों की संरचना, दुर्गीकरण, प्राकार, परिखा आदि तत्कालीन निर्माण शैली के द्योतक हैं । नगर-निर्माण और विस्तार सुनिश्चित योजना पर आधारित होता था । नगरों में विस्तीर्ण सड़कें और उनको जोड़ने वाली छोटी-छोटी बीथियाँ बनाई जाती थीं । राजभवन को एक बड़ी सड़क जाती थी जिसे महापथ कहा जाता था । जैन साहित्य में "सिंघाडग” - “ तिग " - चउक्क" "चत्वर” आदि का वर्णन आया है । तिराहे और तिमुहाणी "सिंघाडग”; और चतुष्पथ और चौमुहानी को " चउक्क" कहा जाता था । जैन ग्रन्थों में वास्तु- विशेषज्ञों के वर्णन आये हैं जो राजमहल, भवन, तृणकुटीर, साधारण गृह, गुफा, बाजार, देवालय, सभामण्डप, प्याउ, आश्रम, भूमि- ९. वही भाग ५ गाथा ४९१५ २. वसुदेवहिण्डी भाग १ पृ० ६१-६३ ३. अलनिचितजातक — आनन्द कौसल्यायन, जातककथा भाग २ पृ० १६० ४. व्यवहारभाष्य भाग १ गाथा ८८ ५. बृहत्कल्पभाष्य, भाग १ गाथा २१६ ६. औपपातिकसूत्र १
SR No.022843
Book TitlePrachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamal Jain
PublisherParshwanath Vidyashram Shodh Samsthan
Publication Year1988
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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