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________________ आचार्य गोविन्दचन्द्र पाण्डे का सौन्दर्य विमर्श / 23 बुद्धि या अन्तःकरण की ज्योति से ही रूप के अव्यक्त अर्थ स्फुरित होते हैं। यह रूप मानस में बिम्ब रूप में स्थित रहता है। मानस बिम्ब के निर्माण में यद्यपि चक्षु आभास ही निमित्त होता है परन्तु मानस बिम्ब यथार्थ का प्रतिरूप नहीं होता है। अतः चित्रण के उपयुक्त रूप का निर्णय चित्रकार के अन्तःकरण में स्थित प्रतिमान से ही होता है न कि बाह्य निमित्त मात्र से। 'रूपभेद' में रूप का प्रत्यक्ष इन्द्रिय ज्ञान के आधार पर होता है, परन्तु भेद का ज्ञान बुद्धि द्वारा अवधारित होता है। यह अवधारणा रुचि, ज्ञान और प्रयोजन की अपेक्षा रखता है। इसी प्रकार आचार्य पाण्डे ने कलाओं में प्रमाण के प्रयोग की व्याख्या हृदय संवादी प्रमा की अनुसारिता द्वारा की है। कलाकार का प्रमाचैतन्य ही बाह्य, अन्तः तथा चित्राकाश में संगति उत्पन्न करता है। भाव भी चित्र में उत्पन्न प्रथम विकार है जिसके कारण मानस चित्र साकार होता है। षडंगों में रूप, प्रमाण और सादृश्य का लक्ष्य चित्र में लावण्य का सृजन करना है तथा भाव वह मूल कारण है जिसके परिपाक पर रस निष्पन्न होता है। वर्णिकाभंग का प्रयोग भाव से प्रेरित रूप को तूलिका, वर्ण रंगतों, या शब्द तथा ध्वनि तरंगों द्वारा साकार करने के लिए होता है। इस प्रकार सभी कलाओं के दृष्टान्तों तथा अन्वीक्षा के उपरान्त आचार्य पाण्डे ने अत्यन्त सारगर्भित पदावली में सौन्दर्य की व्याख्या, काव्य एवं कलाओं के परिप्रेक्ष्य में, निम्न प्रकार से दी है "इस प्रकार काव्य में शब्द प्रयोग के वैचित्र्य से, रूपकर्म में वर्ण, आकार और प्रमाणों के परस्पर संसर्ग के औचित्य से, आवृत्ति-निवृत्ति, भेद-अभेद, विरोध-अविरोध, सादृश्य, वैलक्षण्य, सम अनुपात, समन्वय आदि से लक्षित रचना के द्वारा सौन्दर्य व्याख्येय होता है। किन्तु बाह्य दृश्य में निसर्गतः ही सदृश गुण के प्राप्त होने से सौन्दर्य की प्रतीति होती है। किन्तु सर्वथा सुरचित आभास के रूप में जो रूपातिशय है वही सौन्दर्य है।" (सौन्दर्यदर्शनविमर्श, पृष्ठ 87) यहाँ भी यह ध्यातव्य है कि रचनाकार अपनी कृति में अपने अभिप्राय के अनुरूप चित्त का संकेत निवेशित करता है। यह संकेत अभिव्यञ्जक है, जो प्रेक्षक के चित्त में अभिव्यजित होता है। प्राकृतिक दृश्यों में भी उसी प्रकार अभिप्रायों का बोध होता है। जैसे रचनाकार के ज्ञात न होने पर भी कृति से अभिप्राय बोध होता है। अभिधा द्वारा अभिप्राय बोध होने पर ही अतिरिक्त अर्थ का व्यञ्जन होता है। ऐसा नहीं है कि सदैव सादृश्य या अभिधा द्वारा ही कलाओं में अर्थबोध होता हो, सादृश्य या अभिधार्थ के अभाव में आरोपित अदृष्ट अर्थ का प्रतिपादन भी दृष्ट रूप में सहृदय की चैतन्य क्षमता द्वारा अभिव्यजित होता है। इसे प्रतिभा, विवेक, निपुणता, आदि द्वारा अभिहित किया जाता है। सादृश्य का तात्पर्य काव्य तथा शिल्पादि में विशेष प्रतीयमान सादृश्य से है जो प्रातिभासिक सादृश्य है। इसका तात्पर्य है, मानसी कृति तथा व्यक्त कृति में सादृश्य । व्यञ्जक आकार काव्य में ध्वनि कहलाते हैं या उसके चिह्न शब्द, चित्र में वर्णाकार, संगीत में स्वर आदि, नृत्य में गतिमान लययुक्त मानवीय रूप; ये सभी मानसी सृष्टि के व्यञ्जक होते हैं। वस्तुतः कला में वास्तविक यथार्थ कभी प्रस्तुत नहीं होता, न ही कोई कलाकृति इसलिए श्लाघ्य है कि उसमें किसी इतिवृत्त या पुरुष विशेष की अनुकृति है। कलाकृति मात्र होने के लिए तीन शर्ते आवश्यक हैं- वस्तु रूप तथा अभिव्यक्ति की सत्यता और शुद्धता। इनमें से किसी एक के भी होने पर निर्मित वस्तु कलाकृति हो सकती है। अतः कुछ कलाकृतियाँ केवल अपनी विषयवस्तु के कारण, कुछ अपने रूप के कारण तथा कुछ अपनी अभिव्यक्ति की सत्यता, निर्भीकता एवं शुद्धता के कारण जीवित रहती हैं। नन्दलाल बोस द्वारा 'बापू महात्मा की दांडी यात्रा' का चित्र बापू का प्रतिरूप हो, या रेम्ब्रां नामक चित्रकार के व्यक्ति चित्र', उन व्यक्तियों के इतिवृत्त के संरक्षण के लिए सम्मानित नहीं होते। इसी प्रकार बुद्धचरित या हर्षचरित या शेक्सपियर के नाटक इतिहास के यथार्थ चित्रण होने के कारण ही श्लाघनीय नहीं हैं, अपितु युग धर्म के प्रतिनिधित्व के कारण तथा अपनी अभिव्यक्ति की निर्भीकता के कारण ही प्रशंसित हैं। इसी प्रकार कबीर की साखियाँ यद्यपि कविता के सौष्ठव व
SR No.022812
Book TitleJignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibha Upadhyaya and Others
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year2011
Total Pages272
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size11 MB
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