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________________ 22 / Jijñāsā प्राचीन काव्य तथा शिल्प में रूप के विशेषण रम्य, मनोज्ञ, चारुत्व, आदि लक्षित किये गये हैं। सौन्दर्य का प्रयोजन धर्म के अनुकूल होते हुए काम, अभिलाषा तथा प्रीति को जन्म देता है । चित्रित रूप सम्यक् वर्ण, संस्थान (आकार) तथा प्रमाण का एकत्र सन्निवेश है। काव्य के अतिरिक्त शिल्पशास्त्रों में भी रूप की व्याख्या तथा रूप-संयोजन के आधार पर कलाओं के अन्तः सम्बन्ध को सिद्ध किया गया है। यह सम्बन्ध दैशिक तथा कालिक (Spatial and Temporal) कलाओं के दृश्य-श्रव्य तथा गतिमान रूपों में लय, छन्द, संगति तथा अन्विति के आधार पर स्थापित किया गया है। विभिन्न कलाओं से सम्बद्ध शास्त्रों के विकास के साथ रूप की अवधारणा नये आयामों में विकसित और विस्तृत हुई है। आचार्य पाण्डे ने इस संदर्भ में मूर्तिकला के अतिरिक्त संगीत तथा नाट्य के दृष्टान्त देकर भी रूप की अवधारणा और संस्कृति सापेक्षता को स्फुट किया है। इसी संदर्भ में आचार्य पाण्डे ने भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के रससिद्धान्त की प्रयोज्यशीलता काव्य, नाटक, आदि के साथ संगीत, चित्रादि, दृश्य-श्रव्य कलाओं में भी प्रमाणित की है। वस्तुत: आकारिक दृश्य रूपों पर आधारित होने के कारण चित्र तथा मूर्ति में विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भावों की स्थिति होने से रसनिष्पत्ति में कोई कठिनाई नहीं होती जबकि नादात्मक संगीत में विभावादि का अभाव होने से इसे सिद्ध करने का आचार्य का प्रयास जापनीय है। आचार्य पाण्डे के अनुसार, | "नादात्मक संगीत का सम्यग् ग्रहण श्रोत्र के द्वार से मन-द्वार पर तब होता है जब वह ( मन ) स्पन्दन विशेष से लक्षित ध्वनि के वैशिष्ट्य का ग्रहण करने वाला तथा संस्कार- विशेष से अवश्यमेव वासित होता है। उस प्रकार स्वरयोजनात्मक नाद के गृहीत होने तथा तन्मयीभूत चित्त के कल्पनारूढ होने पर स्वर, ताल आदि अनादि वासना से ही संवित्रपन्दन के आलम्बन अव्यक्त भावों को प्रकाशित करते हैं। हृदय सत्य ही स्पन्दन विशेष से सस्पृष्ट होकर तप्त और द्रवीभूत होता है । " ( सौन्दर्यदर्शनविमर्श, पृष्ठ 79) संगीत संयोजन में भी स्वर, ताल, जय आदि उद्दीपन, चित्त का आत्म चैतन्य, आलम्बन और चित्तवृत्ति ही स्थायी भाव होता है संगीत तथा नृत्य जैसी (मचीय) कलाओं में भी रस निष्पत्ति की प्रयोज्यशीलता पर कुछ आधुनिक विद्वानों ने शोध किया है। इन शोध कार्यों में संगीत मर्मज्ञ प्रेमलता शर्मा तथा समीक्षक सुजन लैंगर का नाम उल्लेखनीय है। साथ ही इस दिशा में आचार्य पाण्डे का स्वयं का चिन्तन भी एक नया आयाम प्रस्तुत करता है । उन्होंने संगीत के तीन पक्षों का विवेचन किया है। प्रथम पक्ष है श्रुति संवेद्य विषय जो रञ्जन करता है, जो प्राकृत तथा सहृदय श्रोताओं के लिए समान रूप से प्रीतिकर होता है। परन्तु संगीत के तार मन्द्र, द्रुत - मन्द्र, अल्प-बहु तथा कण्ठ वैशिष्ट्य नामक गुणों का निरूपण संगीतज्ञ ही कर पाते हैं । द्वितीय पक्ष, बुद्धि द्वारा ग्राह्य है जिसमें, गणितीय आधार पर ताल, स्वरादि की कालिक अन्तराल में संरचना होती है। तृतीय पक्ष में, संगीत की मर्मस्पर्शिता या सम्पूर्ण संरचना से व्यक्त भाव की व्यञ्जकता है। इसी प्रकार गतिमान रूप नृत्य का आधार है, जिसमें भाव, मुद्राओं भंगिमाओं, करण अंगहार, आदि द्वारा व्यंग्य भाव लक्षित होता है। देशिक कलाओं (Spatial Arts) में चित्र तथा मूर्ति की विवेचना करते हुए प्राचीन कलाओं के रूपभेदादि अंगों तथा उनका आधुनिक कलाओं से समन्वय भी आचार्य पाण्डे ने प्रस्तुत किया है। इस समन्वय का आधार है रूपभेद, प्रमाण, सादृश्य, भाव, लावण्य आदि के अर्थों तथा व्यापकता की समझ । रूप भेद आदि के अर्थ को भौतिक स्तर तक सीमित न करके उसके सार्थक तर्क-संगत अर्थ को देखने पर वर्णिकाभंग के अतिरिक्त इन षडंगों में से शेष पांच की सभी कलाओं में व्यापकता तथा सूक्ष्म कलारूपों का समन्वय भी सहज हो जाता है। फिर भी संगीत में ध्वनि की विशेष रंगतों (Tones) का साम्य वर्णिकाभंग के समकक्ष माना जा सकता है। रूप केवल आकार या इन्द्रिय गृहीत न होकर मन से गृहीत होता है जैसे ज्योति भौतिक रूप भेद को प्रकाशित करती है, वैसे ही तत्त्व 1
SR No.022812
Book TitleJignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibha Upadhyaya and Others
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year2011
Total Pages272
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size11 MB
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