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________________ 166/ Jijñāsā पौर्वात्यवाद के संदर्भ में संपदा के पुनरुत्पादन की समस्या पर विचार करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा द्वारा पूछा गया प्रश्न महत्वपूर्ण है कि आखिर वह कौन सा देश होगा जो बार-बार लूटे जाने पर भी जिसने बड़े पैमाने पर इतनी संपदा अर्जित की हो जिसकी ओर लुटेरे फिर उसकी ओर आकर्षित होते हों ? भारत के अलावा संसार में ऐसा दूसरा देश कौन है? इतिहास की मुख्य समस्या यह नहीं है कि भारत की नियति पराजित होना या नहीं। मुख्य समस्या यह है कि जो संपदा बार-बार लूटी गई, उसका सृजन कैसे हुआ?? कॉमन सेंस-सामान्य बोध का तकाजा तो यह है कि लूटने के लिए लूटने जैसी चीजे जरूरी होंगी। इसके लिए उसका पुनरुत्पादन अनिवार्य होगा। ऐसे में पूर्वी देशों में प्रगति तथा सामाजिक जड़ता के बीच उतनी दूरी नहीं हो सकती जितनी पौर्वात्यवाद के समर्थक उपनिवेशवादी इतिहासकारों ने अपनी कल्पना में खोद रखी है। पार्थ चटर्जी ने ठोस ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर समझाया है कि, “यदि भारत में पूँजीवाद के विकास को औपनिवेशिक शासन का परिणाम और एशियाई समाजों की नियति मान लें तो औपनिवेशिक शोषण और लूट को भी इतिहास की तर्क मानकर स्वीकार करना पड़ेगा और तब भारत में अंग्रेजी राज से पूर्व पूँजीवाद के लिए जरूरी भौतिक परिस्थितियों के स्वाभाविक विकास को औपनिवेशिक शासन की इतिहास विधायी भूमिका की विचित्र तर्क योजना से खारिज करना पड़ेगा।" __योरोप में स्थापित होने और उपनिवेशों के जन्म के बाद पूँजीवाद ने जिस सोच को जन्म दिया उसकी प्रकृति में ही सभ्यताओं एवं संस्कृतियों का भेदभाव निहित था। उत्तरऔपनिवेशिक दौर में वही आधुनिक एवं सभ्य योरोप तथा आदिम एवं बर्बर शेष सब के विभाजन का आधार बना। प्राच्यवाद का अर्थ हो गया निरंकुशता तथा विकसित पश्चिम के ज्ञान-विज्ञान, कला एवं वाणिज्य से अलगाव। परिणामस्वरूप आर्थिक, बौद्धिक एवं सांस्कृतिक पिछड़ापन। एडवर्ड सईद ने लिखा है “प्राच्यवाद पिछड़ेपन से मुक्ति, वर्चस्वशीलता और अधिकार-भावना की पश्चिम शैली या मॉडल बन गया।'' यह एक ऐसी मानसिकता थी जो पश्चिम की आडंबरी श्रेष्ठता के दंभ से उपजी थी। उसकी शिक्षा थी कि एशिया में आधुनिक परिवर्तन एशियाई समाजों के आंतरिक दबावों का परिणाम न होकर प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से औपनिवेशिक विजय से संभव हुआ। उसका सारा जोर इस बात पर था कि उपनिवेशों की पतनशील सभ्यता का उद्धार होना अभी बाकी है। उन्हें विवेकशील,व्यस्क एवं सभ्य बनने के लिए उसी शिक्षा और तौरतरीकों की जरूरत है जिसे उनके औपनिवेशिक आका समझा रहे हैं, यानि शरीर से भारतीय और भाषा एवं तहजीब से ब्रिटिश । लार्ड मेकाले ने कहा था “मुझे उनमें (भारतीय भाषाओं एवं परंपरा के समर्थकों में) ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं मिला जो यह न माने कि अच्छे योरोपीय पुस्तकालय की एक ही आलमारी भारत और अरब के सारे पुराने साहित्य से श्रेष्ठ है।" प्रोफेसर नामवर सिंह ने लिखा है, "ओरिएन्टलिज्म उन्नीसवीं सदी के पश्चिम के साम्राज्यवादी देशों की एक (बौद्धिक) सृष्टि थी। ...इस ओरिएन्टलिज्म के द्वारा पूर्व देशों की संस्कृति को एक विशेष प्रकार के रोमैंटिक प्रभामंडल से ढंककर रखा जाता था, जिस प्रभामंडल का निर्माण वे एक विशेष प्रभामंडल के द्वारा करते थे। ....पश्चिम भौतिकवादी है और पूर्व अध्यात्मवादी है। इस अध्यात्मवाद का ढोल पीटते हुए हम लोगों को और पूरब के लोगों को भौतिक स्तर पर गुलाम बनाये रखते थे और हम लोगों को केवल अध्यात्म चिंतन में ही रत देखना चाहते थे। .......डॉ. ग्रियर्सन ने पूरे प्राचीन हिन्दी साहित्य का मूल्यांकन उस रहस्यवादी गुणवत्ता के कारण किया है जिसे उन दिनों 'क्रिस्टोमैथी' कहा करते थे। ....उसमें (द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान) विद्यापति भी उसी 'क्रिस्टोमैथी' के प्रभाव में है सूर उसी में हैं, जायसी हैं, तुलसी हैं, सारी की सारी परंपरा, रीतिकाल को छोड़कर, उसी में है। ....ग्रियर्सन ने अपने ढंग से दिखाने की कोशिश की थी कि मध्य युग के संतों, भक्तों और कवियों सभी में जिस प्रकार की रहस्य चेतना दिखायी पडती थी, समूचा हिन्दी-साहित्य उसी रहस्य चेतना से व्याप्त है।"10 'वर्नाक्यूलर' शब्द पर ध्यान दें। आम तौर पर उसका अर्थ है, क्षेत्रीय ग्रामीण, देशज आदि। अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, डच, स्पैनिश आदि भाषाएँ 'वर्नाक्यूलर'- क्षेत्रीय अथवा ग्रामीण नही हो सकती थी क्योंकि वे साम्राज्यवादी-उपनिवेशवादियों की भाषाएँ थी। इसलिए उनमे लिखा गया साहित्य भी 'वर्नाक्यूलर लिटरेचर' नहीं कहा जा सकता। उपनिवेशों की भाषा-संस्कृति ग्रामीण, क्षेत्रीय एवं स्थानीय हैं। अभी उनका राष्ट्रीय चरित्र ही नही बना है, अन्तर्राष्ट्रीय चरित्र की बात तो बहुत दूर की है। भारत की पिछड़ी हुई भाषाओं में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के सूक्ष्म तंतुओं का रहस्य कैसे खोला जा सकता है? इसी से स्पष्ट हो जाता है कि ग्रियर्सन
SR No.022812
Book TitleJignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibha Upadhyaya and Others
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year2011
Total Pages272
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size11 MB
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